Food Security: पौधों की जंगली किस्मों में छिपी भविष्य की खाद्यान्न सुरक्षा की कुंजी
डॉ. निमिष कपूर, विज्ञान संचार विशेषज्ञ, नई दिल्ली
Published by: Umashankar Mishra
Updated Mon, 17 Jun 2024 09:00 PM IST
सार
विश्व की जनसंख्या वर्ष 2100 तक बढ़कर 1040 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। जनसंख्या विस्फोट की यह स्थिति भविष्य में खाद्यान्न सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर सकती है। वैज्ञानिक जंगली फसलों में भविष्य की खाद्यान्न सुरक्षा की कुंजी खोज रहे हैं।
जलवायु अनुकूल किस्मों के विकास में शोधरत वैज्ञानिकों के साथ आईएआरआई के निदेशक डॉ. अशोक सिंह (मध्य)।
- फोटो : गांव जंक्शन
जलवायु परिवर्तन के कारण खेती-बाड़ी पर खतरा बढ़ा है। मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों के कम होने से लेकर जल संकट, तीव्र वर्षा की घटनाएं, बाढ़, मिट्टी का क्षरण और सूखे जैसी समस्याएं देखने को मिल रही हैं। कृषि पर मंडराते इस खतरे और बढ़ती आबादी को देखते हुए भविष्य में खाद्य सुरक्षा का संकट बढ़ सकता है। कृषि वैज्ञानिक अब भविष्य की खाद्य सुरक्षा की कुंजी फसलों की जंगली एवं पुरातन प्रजातियों में खोज रहे हैं।
पौधों की जंगली प्रजातियों से उम्मीद
देश की कृषि प्रयोगशालाओं में पौधों की जंगली प्रजातियों (Wild Species) पर काफी शोध कार्य हो रहा है। पौधों के इन जंगली या पुरातन संबंधियों में ऐसे जीन्स तलाशे जा रहे हैं, जो जलवायु परिवर्तन के खतरों का सामना करने में सक्षम हों। पौधों की जंगली प्रजातियों में पाए जाने वाले इन जीन्स का उपयोग नई फसल किस्मों के विकास में किया जाएगा, जो बदलती जलवायु के साथ तालमेल स्थापित करने में सक्षम होंगे। इन नई फसल किस्मों से अधिक उत्पादन, बेहतर पोषक मूल्य के साथ-साथ रोग-प्रतिरोधी गुणों के विकास की उम्मीद की जा रही है।
कृषि वैज्ञानिकों ने खोजी नई किस्में
जलवायु परिवर्तन के कारण पौधों में जैविक तनाव, अजैविक तनाव और गुणवत्ता सुधार; इन तीनों चुनौतियों का समाधान खोजने के लिए पौधों के पुराने रिश्तेदारों से वांछित गुणों वाले जीन्स की तलाश जारी है। फसलों की जंगली प्रजातियों के जीन्स के प्रयोग से मक्का, गेहूं, धान, सरसों आदि की हाइब्रिड किस्में तैयार की जा रही हैं, जिनकी उत्पादकता अधिक होती है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर) द्वारा जंगली प्रजातियों के रतुआ रोग प्रतिरोधी जीन का उपयोग कर जलवायु के प्रति लचीली और रोग प्रतिरोधी गेहूं की कई किस्में जारी की गईं हैं।
आईसीएआर द्वारा पिछले वर्ष एच.डी.-3406 (उन्नत एच.डी.-2967) और एच.डी.-3407 (उन्नत एच.डी.-2932) जारी कर देश के किसानों को उपलब्ध कराई गईं। इनमें नई बीमारियों से लड़ने की बेहतर क्षमता है। पहले भी गेहूं की कई प्रचलित किस्मों जैसे - एचडी-2733, एचडी-2851, एचडी-2888, एचआई-1500, एचडी-3059 और अन्य किस्मो में भी जंगली संबंधियों के प्रतिरोधी जीन्स का उपयोग किया गया है। धान की पूसा बासमती-1847, पूसा बासमती-1865 एवं पूसा बासमती-1886 के विकास में भी पौधों के जंगली संबंधियों के प्रतिरोधी जीन (XA 21) का उपयोग किया गया है। ये किस्में किसानों के बीच काफी लोकप्रिय हैं।
फसलों में जैविक और अजैविक तनाव
आईसीएआर के आनुवंशिकी संभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. शैलेंद्र कुमार झा और डॉ. कुमार दुर्गेश इस दिशा में शोधरत हैं। डॉ. शैलेंद्र बताते हैं कि पौधों में मुख्य्तः दो तरह के तनाव होते हैं। एक जैविक तनाव होता है, जो प्रायः सूक्ष्मजीव (कवक, जीवाणु या विषाणु) के कारण होता है। दूसरा अजैविक तनाव है, जो विशेषकर पानी की कमी, जमीन में लवणता या तापमान अधिक होने के कारण होता है। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात फसल की बेहतर गुणवत्ता और अच्छी उत्पादकता की आती है। आज सभी उपभोक्ताओं को अच्छी गुणवत्ता का भोजन चाहिए, जिसमें पोषण अधिक हों। इसी के साथ, किसानों को भी फसल का अच्छा उत्पादन मिलना चाहिए।
जैविक तनाव के सुधार के लिए जो जीन चाहिए होते हैं, वो भी प्रायः पौधों की वाइल्ड स्पेशीज या जंगली प्रजातियों से मिलते हैं। जंगली प्रजातियों के उपयोग से विकसित प्रतिरोधी किस्मों में रोग नहीं लगते। अतः किसानों की खेती की लागत कम हो जाती है, क्योंकि फसल में बीमारी को रोकने के लिए रसायनों का उपयोग नहीं करना पड़ता। इसके साथ ही, रसायनों का उपयोग नहीं होने से पर्यावरण को भी नुकसान कम होता है। नई बीमारियों से निपटने के लिए भी जंगली प्रजातियों के जीन्स कारगर होते हैं।
आज पौधों में नई तरह की बीमारियां आ रही हैं। हमारे पड़ोसी देशों में हाल में गेहूं में ब्लास्ट की समस्या का पता चला था, जिसकी रोकथाम के लिए जंगली प्रजातियों से स्थानांतरित जीन्स को उपयोग में लाया गया। इसके साथ ही, अजैविक तनाव, जैसे - अधिक तापमान, लवणता, सूखा आदि के लिए भी उपयोगी जीन्स हमें उन पौधों के पुराने संबंधियों से ही मिलते हैं। वैज्ञानिक प्रयास कर रहे हैं कि कम उर्वरकता वाली जमीन में या फिर कम से कम नाइट्रोजन का उपयोग करने पर भी हमें अच्छी उत्पादकता मिले।
जंगली किस्मों से विकसित की गई जलवायु के प्रति लचीली और रोग प्रतिरोधी गेहूं की किस्म।
- फोटो : गांव जंक्शन
तनाव झेलने में सक्षम पुरातन पौधे
डॉ. शैलेंद्र बताते हैं कि कई जंगली प्रजातियां प्राकृतिक दशाओं में विभिन्न तनावों को झेलते हुए उगने में सक्षम होती हैं। इन पौधों को न तो अलग से कोई पोषण दिया जाता है, न ही कोई खाद डाली जाती है। ये पौधे ऐसी दशाओं में उगते हैं, जहां पानी की कमी या अधिकता होती है, उर्वरक की कमी होती है और इन पौधों में ऐसे जीन्स मिलते हैं, जो पौधे को विपरीत परिस्थितियों में उगने में मदद करते हैं। डॉ. शैलेंद्र के अनुसार, इस तरह के कई जीन्स हैं, जो जैविक-अजैविक तनाव की स्थिति में काम आते हैं। अजैविक तनाव के कारण अगर मिटटी की लवणता अधिक हो जाए, तो उसे लवण प्रभावित क्षेत्र कहते हैं।
राजस्थान के पाली जिले की खारचिया तहसील की मिट्टी लवणीय है। वहां के किसान गेहूं की एक लंबी लाल दाने वाली किस्म उगाते रहे हैं, जिसे खारचिया लोकल कहते हैं। उपज के मामले में यह एक बेहतर प्रजाति है, जो सर्वाधिक लवण सहिष्णु गेहूं का जीनोटाइप है, लेकिन इसमें रस्ट की बीमारी बहुत जल्दी पकड़ती है। सेंट्रल सॉइल सेलेनिटी रिसर्च इंस्टीट्यूट, करनाल के वैज्ञानिकों ने खारचिया लोकल में रतुआ-रोधी किस्म के साथ संकरण के माध्यम से खारचिया-65 किस्म तैयार की है, जो रतुआ-रोधी है और बहुत अच्छी उपज दे रही है। भारत में अधिकांश उन्नत लवणता-प्रतिरोधी किस्मों को खारचिया-65 को आधार बनाकर विकसित किया गया है और इसका उपयोग दुनियाभर में गेहूं के लवण सहनशीलता परीक्षण के मानक के रूप में किया जाता है।
उपज में ज्यादा पोषक तत्व की मात्रा के लिए भी जंगली प्रजातियों से जीन स्थानांतरित कर पौधों में डाले जा सकते हैं। हमें अधिक मात्रा में प्रोटीन वाली किस्म चाहिए, तो खपली गेहूं की पुरानी किस्मों के जीन गेहूं की अन्य किस्मों में डालकर उनमें प्रोटीन की मात्रा बढ़ाई जा रही है। किसान खपली गेहूं की खेती से आमदनी का जरिया बढ़ा रहे हैं। खपली गेहूं पुरातन समय का अनाज है, जो औषधीय गुणों से भरपूर है और साथ ही इसमें कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स होता है, जो शरीर में शुगर को नियंत्रित करने में मदद कर सकता है।
मौजूदा प्रजातियों के पुराने संबंधी
डॉ. कुमार दुर्गेश के अनुसार, आज जिन प्रजातियों की खेती होती है, प्रायः वे जंगली प्रजातियों से ही विकसित हुए हैं, यानी वो आज की प्रजातियों केे पुराने संबंधी हैं। पौधों के पुराने संबंधियों के पास बहुत-से ऐसे जीन्स हैं, जो आज भी काम आ सकते हैं। वाइल्ड स्पीशीज के जीन्स से क्रॉस करने पर कभी-कभी ऐसे गुण भी मिल जाते हैं, जो पहले उपलब्ध ही नहीं थे, जैसे कि अरहर में किस्मों की शुद्धता बरकरार रखने के लिए क्लीसटोगेमी भी जंगली प्रजातियों से आया है। अधिक उपज वाली संकर किस्मों के विकास के लिए नर बंध्यता (male sterility) भी जंगली प्रजातियों से ही मिली है। धान, गेहूं, बाजरा, अरहर इत्यादि फसलों की संकर किस्मों में नर बंध्यता का आधार भी जंगली प्रजातियों से ही आया है।
ऐसे तैयार होती हैं फसल की नई किस्में
जंगली प्रजातियों के उपयोग से हाइब्रिड या नई प्रजाति तैयार करना एक लंबी प्रक्रिया है। चुनौती यह होती है कि वाइल्ड स्पेशीज से केवल वांछित गुणों वाले जीन्स लिए जाएं और अवांछित लक्षणों को हटा दें। इस पूरी प्रक्रिया को प्री-ब्रीडिंग अप्रोच कहते हैं। जंगली प्रजाति से जीन ट्रांसफर करके नई प्रजाति का निर्माण लंबे समय तक चलने वाली शोध प्रक्रिया है। इसमें खेतों में उगाई जा रही किसी मौजूदा प्रजाति और पुरातन समय से चली आ रही उसकी वाइल्ड प्रजाति का चयन किया जाता है, ताकि उसके वांछित गुणों वाले जीन्स खेतों में उगाई जाने वाली प्रजाति में ट्रांसफर किए जा सकें। इस प्रकार, उनका प्रजनन कराकर नई प्रजाति बनाई जाती है और अंततः यह किसानों तक पहुंचती है।
वांछित गुणों वाले जीन्स से तात्पर्य ऐसे जीन्स से है, जो जैविक या अजैविक तनावों से लड़ने में पौधों की मदद करने में सक्षम हों, नई प्रजाति को बदलती जलवायु के अनुसार ढाल सकें और उच्च उपज भी दे सकें। इस प्रकार के गुण वाले जीन्स वैज्ञानिक वाइल्ड स्पेशीज से लेकर नई किस्मों में शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं। प्राकृतिक वातावरण में उगने वाली वाइल्ड स्पेशीज के जीन्स जब आधुनिक किस्मों में प्रयोग किए जाते हैं, तो अच्छी पैदावार के साथ-साथ रोग-प्रतिरोधी क्षमता को बढ़ाना भी एक लक्ष्य होता है। ऐसा होने पर कम उर्वरकों, कम कीटनाशकों और कम पानी के उपयोग से कम खर्च में फसलें उगाई जा सकती हैं। इस तरह, वाइल्ड किस्मों के उपयोगी जीन्स का लाभ जलवायु के अनुकूल फसलों के विकास में मिलता है।
आज भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अंतर्गत कई शोध संस्थान वाइल्ड स्पेशीज में अपने-अपने क्षेत्र, आवश्यकता और फसलों के अनुरूप शोधरत हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली सहित केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद; भारतीय गेहूं अनुसंधान संस्थान, करनाल; भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान, लुधियाना एवं अन्य संस्थानों में हजारों वैज्ञानिकों के समूह इस विषय पर शोध कर रहे हैं।
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