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General Election: चुनावी मुद्दों में किसान और ग्रामीण भारत, खेती-बाड़ी पर हमेशा बना रहा फोकस

अरविंद कुमार सिंह, नई दिल्ली Published by: Umashankar Mishra Updated Mon, 20 May 2024 08:20 PM IST
सार

देश में 18वीं लोकसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच किसानों को नई जाति कहा गया। नए राजनीतिक गठबंधन हुए और चुनावी वादों की झड़ी लगा दी गई। स्वतंत्र भारत के आरंभिक चुनावों में भी खेती-बाड़ी और किसानों का कल्याण मुद्दा बनता रहा है। 

11 मार्च, 1971 को लालकिले की प्राचीर के नीचे चुनाव परिणाम बोर्ड पर नजर गड़ाए लोग।
11 मार्च, 1971 को लालकिले की प्राचीर के नीचे चुनाव परिणाम बोर्ड पर नजर गड़ाए लोग। - फोटो : फाइल

विस्तार
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लोकसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच खेती-बाड़ी से जुड़े तमाम सवाल गांव-देहात में मुखरित हो रहे हैं। सभी दल 14 करोड़ से अधिक किसान परिवारों को रिझाने में लगे हैं। चुनाव के पहले और किसान आंदोलन के बीच चौधरी चरण सिंह तथा कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने के साथ राजनीति गरमा गई। भाजपा ने किसान मतों को रिझाने के लिए रालोद के साथ गठबंधन भी किया। तमाम राजनेता यह दिखाने का भी प्रयास कर रहे हैं कि उनको खेती का काम आता है। खेतों में हेमा मालिनी की तस्वीरें हाल के दिनों में काफी वायरल हुई हैं।

अतीत में देखें तो आरंभिक चुनावों में खेती-बाड़ी और किसानों का कल्याण मुद्दा बनता रहा है।आजादी के पहले अंग्रेजी राज में 1937 और 1946 के विधानसभा चुनावों में भी किसान हावी रहे। आजादी के बाद के तीन चुनावों में जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार सबसे बड़ा मुद्दा रहा। 

उस दौरान ग्रामीण इलाकों में जमींदारों का वर्चस्व था। देसी रियासतों में जागीरों की दशा खराब थी। किसानों को जमींदार जोंक की तरह चूस रहे थे। खुद गांधीजी ने कहा था - जागीरें राज्य के अंदर राज्य हैं और इन पर किसी कानून की सत्ता नहीं चलती। जागीरों में रहने वाली प्रजा की स्थिति देसी रियासतों में बुरी से बुरी है।

पहले चुनाव में कांग्रेस ने जमींदारी उन्मूलन, सीलिंग और भूमि सुधार को प्रमुख मुद्दा बनाया था। भूमि सुधारों का काम 1959 तक पूरा करने का संकल्प लिया गया। लेकिन, अलग-अलग राज्यों में जमींदारियों के स्वरूप और कानूनी जंग के कारण कई जगह इसमें देरी हुई। इस अभियान के कारण ग्रामीण जमींदारों का बड़ा तबका कांग्रेस के विरोध में खड़ा हो गया। कांग्रेस का मत था कि जो जमीन को जोतता है, वही उसका मालिक भी होगा और जो अनाज पैदा करता है, वही उसका प्रथम भोक्ता होगा। उत्तर प्रदेश में 1946 में विधानसभा के चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस ने किसानों की भूमि में मल्कियत देने, प्रगतिशील कृषि तथा सहकारी खेती की वकालत की गई थी। आजादी के बाद पहली बार सितंबर 1950 में पुरुषोत्तम दास टंडन की अध्यक्षता में हुए 56वें कांग्रेस अधिवेशन में भारत में कल्याणकारी राज्य की स्थापना के साथ आर्थिक जनतंत्र की वकालत करते हुए कांग्रेस की ओर से जमींदारी, जागीरदारी और अन्य मध्यस्थ प्रथाएं समाप्त करने की घोषणा की गई। 

पहले लोकसभा चुनाव में जनसंघ ने भी गांव देहात, खेती बाड़ी की तरक्की, भूमि सुधार, सर्वोदय और न्याय तंत्र का वादा किया था।

कांग्रेस ने विस्तार से अन्न के मामले में आत्मनिर्भरता के साथ अपने शासित राज्यों में कृषि, पंचायती राज और सिंचाई क्षेत्रों में प्रगति का भी जिक्र किया। कुछ नए राज्यों में अलग से चुनाव घोषणापत्र जारी हुए। जैसे नवगठित विंध्य प्रदेश के चुनाव घोषणापत्र में 1951 में जमींदारी प्रथा के अंत के साथ सहकारी खेती के लिए विशेष सुविधा, सिंचाई, ट्रैक्टर, बांध बनाने और बैल खरीदने के लिए विशेष सहायता के वादे के साथ अच्छे बीज स्टोर खोलने की बात भी की गई थी। भाषणों में किसान राज्य का वादा किया गया था और बेगारी तथा बेदखली खत्म करने की बातें उम्मीदवार अपने चुनावी भाषणों में करते थे।

पहले आम चुनाव के दौरान ही किसान मतों की शक्ति सभी राजनीतिक दलों को पता चल गई थी। उस दौरान कांग्रेस, कम्युस्टि पार्टी, हिंदू महासभा, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी के अलावा दो ऐसे दल भी थे जिन्होंने किसानों को रिझाने के लिए अपने नाम रखे थे कृषक लोक पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी। 

अक्सर लोगों को लगता है कि देश में पहला चुनाव सहज था, क्योंकि आबादी कम थी। लेकिन, हकीकत यह है कि वह सबसे जटिल चुनाव था, क्योंकि 1951-52 के बीच लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभाओं और विधान परिषदों के कुल 4505 सीटों पर चुनाव हो रहे थे। इसमें से 3772 सीटों पर प्रत्यक्ष चुनाव था। इन चुनावों के तत्काल बाद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का भी चुनाव हुआ था। पहले चुनाव के बाद राजनीतिक दलों को महसूस हुआ कि किसानों के संगठन दलों के भीतर बनने चाहिए। खेत मजदूरों के संगठन भी इसी दौरान बने। बाद में, स्वतंत्र किसान संगठन भी दबाव समूह के रूप में सामने आए, जिसमें भारतीय किसान यूनियन प्रमुख है, जिसने महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में लंबा सफर तय किया और किसानों के कई मुद्दों के निराकरण में भी मदद की।

अंग्रेजी राज से विरासत में जो खेती बाड़ी भारत को मिली, वह वेंटिलेटर पर पड़ी थी। रोटी कपड़े की भारी दिक्कत थी। आबादी के 82 फीसदी लोग गांवों में रहते थे। वोटर होने के कारण वे अहम थे। लेकिन, 1950-51 में कृषि उपज महज 5.30 करोड़ टन थी और हर साल काफी अन्न आयात करना पड़ता था। जो अन्न उपजाता था वही सबसे अभागी दशा में था। उस दौर का एक गीत किसानों की दशा बताता है।

सबसे अभागा हम किसान एही देसवा में।
अपने से खेत जोती, अपने से खेत बोई,
तबौ नाहीं अन्न के ठेकान एही देसवा में।
करजा दिन दूना बाढ़ै, रात चौगुना बाढ़ै, 
होई गैले सहुआ सब बेईमान हमरे देसवा में।

 
देश के पहले चुनाव में बैलों की जोड़ी सबसे लोकप्रिय चुनाव चिह्न था।
देश के पहले चुनाव में बैलों की जोड़ी सबसे लोकप्रिय चुनाव चिह्न था। - फोटो : फाइल
खेती-किसानी करना सम्मानजनक पेशा था..
पहले और अब के आम चुनाव में फर्क यह है कि तब उपज कम थी, गांवों में गरीबी थी, लेकिन खेती सम्मानजनक पेशा था। आज किसान समाज में निचले पायदान पर है। आजादी के बाद से बजट का 12.5 फीसदी खेती को मिलता था, जो घटकर 3-4 फीसदी पर आ गया। शहर-देहात की खाई बढ़ती गई। गांवों में जोतें छोटी और अनुत्पादक होती जा रही हैं। पं. नेहरू के शासनकाल में तीनों चुनावों में सभी दलों ने किसानों को मुद्दा बनाया। आरंभिक चार योजनाओं में कृषि का विकास केंद्र में रहा। भूमि सुधार, सहकारी खेती, बंजर और ऊसर भूमि सुधार, कृषि श्रमिकों को भूमि आवंटन और नदी घाटी परियोजनाओं पर राष्ट्रीय बहसें हुईं। भाखड़ा नांगल व हीराकुं़ड जैसी परियोजनाएं साकार हुईं। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के कारखाने खुले और तमाम संस्थाएं स्थापित हुईं। 

वर्ष 1960 और 70 के दशक में कृषि और ग्रामीण विकास तथा गरीबी हटाओ पर फोकस रहा। फिर भी समस्या जटिल बनी रही। लाल बहादुर शास्त्री ने लालकिले से अपने संबोधन में 1965 में कहा कि अनाज पैदा करना मैं उतना ही जरूरी समझता हूं जितना कि रक्षा का प्रबंध। बाहर के देशों पर निर्भर रहना न केवल देश की अर्थव्यवस्था के लिए बुरा है, बल्कि इससे हमारे स्वाभिमान, आत्मविश्वास, इज्जत और भरोसे की भावना को ठेस पहुंचती है। 
खाद्य संकट इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल तक बना रहा। पीछे के सतत प्रयासों की देन थी कि 1970-71 में रिकॉर्ड 10.80 करोड़ अन्न उत्पादन के साथ विदेशों से अन्न मंगाना बंद हुआ। गेहूं क्रांति हुई, जिसे हरित क्रांति नाम मिला। उसी दौरान किसानों, बुनकरों, कुटीर उद्योगों, लघु उद्योगों तथा बैंको का राष्ट्रीकरण हुआ। 1980 के दशक में 21वीं सदी की चुनौतियों के आलोक में तैयारियां आरंभ हुईं। पर, तब उद्योगों के आधुनिकीकरण के साथ विज्ञान और तकनीक पर जोर रहा।

एक अरसे तक किसानों की बदौलत कांग्रेस का राजनीतिक वर्चस्व कायम रहा। पर, उसके बीच से कई नेता विपक्ष का हिस्सा बन गए, जिनकी राजनीति का आधार किसान ही थे। चौधरी चरण सिंह और देवीलाल का नाम इसमें अग्रणी है। वर्ष 1969 में उन्होंने भारतीय क्रांति दल बनाया, जिसकी ताकत किसान थे। वर्ष 1977 में उनका ही आधार जनता पार्टी के लिए प्राणवायु बना। जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में चौधरी चरण सिंह के कारण ही कृषि और ग्रामीण पुनर्निर्माण को प्राथमिकता मिली। किसानों को पैदावार का उचित दाम देने के साथ ढाई हेक्टेयर तक जोत पर लगान माफी का वादा भी इसमें था। किसानों के आधार ने जनता दल की 1989 में सरकार बनाने में मदद की, जिसके केंद्र में चौधरी देवीलाल थे। 

बीते 17 चुनावों में बहुत उतार-चढ़ाव दिखता है। फिर भी किसानों के मुद्दे हर चुनाव में कमोबेश कायम रहे। वर्ष 2019 में चुनाव के ठीक पहले मोदी सरकार ने किसान सम्मान निधि आरंभ कर इसे मुद्दा बना दिया। अभी कृषि बजट का आधा धन इसी पर व्यय हो रहा है। भाजपा को इसका राजनीतिक लाभ भी मिला। इसके पहले यूपीए सरकार के दौरान मनरेगा, खाद्य सुरक्षा और कर्ज माफी जैसी पहल हुई। 11 करोड़ किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड मिला। पर, वर्ष 2014 में ग्रामीण आधार बढ़ाकर भाजपा ने 282 सीटें जीत लीं, जो 2019 में 303 हो गईं। वर्ष 2019 में ग्रामीण क्षेत्रों की 57 फीसदी से अधिक सीटें भाजपा ने जीतीं। कई दलों को उसने नुकसान पहुंचाया, जिनका आधार ग्रामीण मतदाता थे। 

बीते एक दशक में मोदी सरकार ने कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय करने के साथ कई वादे किए, जिसने गांवों में पैठ बनाने का काम किया। पीएम किसान, कृषि सिंचाई परियोजना, फसल बीमा योजना, जैविक खेती और मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजनाओं से उसे फायदा हुआ। पर, किसानों को फसलों के वाजिब दाम का सवाल मुद्दा बना हुआ है। देश के कुल कार्यबल में से 54.6 फीसदी कामगार कृषि और सहायक क्षेत्रों में गांवों में काम कर रहे हैं। आज भी हमारे गांव असीमित ताकत के प्रतीक हैं। उनके मुद्दों या ग्रामीण वोटरों को अनदेखा करना 18वीं लोकसभा में भी संभव नहीं है।