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बदलते गांव: आजादी के आरंभिक वर्षों में कई बड़े कार्यक्रमों का आधार थी ग्रामीणों की जनभागीदारी

अरविंद कुमार सिंह, वरिष्ठ कृषि पत्रकार Published by: Umashankar Mishra Updated Sat, 15 Jun 2024 10:29 AM IST
सार

आजादी के आरंभिक वर्षों में सामुदायिक विकास योजना तेजी से आगे बढ़ रही थी। इसके दायरे में वर्ष 1957 तक खेती-बाड़ी, संचार साधन, शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण उद्योग, आवास, प्रशिक्षण, सहकारिता और पंचायत शामिल हुए। मुख्य रूप से जनभागीदारी पर आधारित इस योजना में लगभग 60 फीसदी योगदान गांव के लोगों का ही था। 

गांवों में कम हो रही है सामुदायिक भागीदारी की भावना।
गांवों में कम हो रही है सामुदायिक भागीदारी की भावना। - फोटो : स्टॉक

विस्तार
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एक विशाल देश होने के कारण भारत में ग्रामीण समाज विविधताओं से भरा है। पहाड़ी इलाके के गांव हों या मैदानी, समुद्र तटीय इलाकों के गांव हों या द्वीपों पर बसे हों, सामुदायिकता और एकता का भाव करीब एक-सा रहा है। लद्दाख के गांव हों या फिर राजस्थान में रेत के टीलों की ओट में बसे गांव और ढाणियां सबकी अपनी विशिष्टता है। विरासत में मिली ग्रामीण सभ्यता, संस्कृति, परंपराओं और तीज-त्योहारों को इन्होंने सहेजकर रखा है। आजादी के समय खेती-बाड़ी, सिंचाई, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन और संचार साधनों की दशा दयनीय थी। देश की 35 करोड़ आबादी का 82 फीसदी हिस्सा गांवों में रहता था, जिनके लिए रोटी-कपड़ा जुटाना कठिन था। आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में करीब 17 सालों के दौरान जमींदारी उन्मूलन, भूमि सुधार, सहकारिता और सामुदायिक विकास जैसी पहलों के साथ भाखड़ा नांगल, हीराकुंड, नागार्जुन सागर जैसी कई परियोजनाओं ने कृषि क्षेत्र के विकास को मजबूत आधार दिया। लेकिन, विदेशों से अनाज मंगाना सत्तर के दशक में बंद हुआ, जब हरित क्रांति साकार हुई। समय के साथ विकास के सभी संकेतकों में भारत आगे बढ़ता रहा।  

बदल रहे हैं ग्रामीण समुदाय
आज ग्रामीण समुदाय में बहुत से बदलाव नजर आ रहे हैं। पर, इसके पीछे सामूहिकता की उनकी शक्ति, आपसी भाईचारा और अपने सवालों को खुद हल करने का जज्बा भी एक कारक है। शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण भारत में बहुत-सी विशिष्टताएं बनी हुई हैं। सुविधाओं में शहरों से काफी पीछे हमारे गांव असीमित शक्ति के प्रतीक बने हुए हैं। हालांकि, बीते तीन-चार दशकों में राजनीतिक शक्ति विस्तार के प्रयासों के क्रम में गांवों में शहरी बुराइयों ने प्रवेश किया है। पंचायत चुनाव भी इसमें कारक हैं। इससे पैदा हुई गुटबाजी ने गांवों को नुकसान पहुंचाया। लेकिन, इन बातों की आशंका पहले से व्यक्त की जा रही थी। गांधीजी ने खुद राजनीतिक कारणों से गांवों में फैल रही शहरों जैसी गुटबाजी और दूसरे दोषों पर चिंता जताई थी। हालांकि, वह मानते थे कि ‘इनमें एक भी दोष ऐसा नहीं है, जिसे दूर न किया जा सके।’ गांधीजी की सोच थी कि जब तक भारत के लाखों गांव स्वतंत्र, शक्तिशाली और स्वावलंबी नहीं बनेंगे, तब तक देश का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। उनकी परिकल्पना का आदर्श ग्राम शायद देश में नहीं बन सका, फिर भी देश के 6.62 लाख गांवों और 2.57 लाख  ग्राम पंचायतों से भारत को असीमित शक्ति मिलती है। पंचायती राज संस्थाओं में निर्वाचित 31.88 लाख प्रतिनिधियों में 14.54 लाख महिलाएं हैं। 

सामुदायिक शक्ति पर चोट 
भारत ही ग्राम पंचायत संस्था का जन्मदाता देश है। मान्यता है कि पंचायत प्रणाली सबसे पहले राजा भृगु ने गंगा यमुना के मैदानी इलाकों में स्थापित की। वैदिक आर्यों के जमाने से ग्राम को शासन की प्राथमिक इकाई माना गया। हमारे ग्रामीण गणतंत्र आदिकाल से ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन तक फलते-फूलते रहे। राजवंशों का पतन हुआ, पर ये बरकरार रहे। वर्ष 1832 में ब्रिटिश गवर्नर जनरल सर चार्ल्स मेटकाफ ने लिखा कि भारत में ग्रामीण समुदाय छोटे गणतंत्र हैं, जिनके पास वे सभी चीजें हैं, जिनकी उनको जरूरत है। उनकी बाहरी निर्भरता नहीं है। लेकिन, ईस्ट इंडिया कंपनी के लोलुप अफसरों ने परंपरागत मौजावारी व्यवस्था की जगह जमींदारी और रैयतवारी प्रथा लादकर गांवों के सामुदायिक संगठन को भारी चोट पहुंचाई। पंचायतों के स्थान पर अंग्रेजों के खुसामदियों को बिठाकर इस संस्था को नष्ट किया। विकास, सामाजिक सौहार्द, एकता तथा न्याय के मजबूत केंद्र को नष्ट किया। इन पंचायतों को ध्वस्त करने से उपजा आक्रोश 1857 की महान क्रांति में भी दिखा।
आजादी के बाद अंजाम दिए गए कई कार्यक्रमों में सामुदायिक भागीदारी अहम रही है।
आजादी के बाद अंजाम दिए गए कई कार्यक्रमों में सामुदायिक भागीदारी अहम रही है। - फोटो : गांव जंक्शन
योजना, जिसने बदल दिया नक्शा 
आजादी के बाद इस खंडित परंपरा को स्थापित करने का दौर चला। उस दौरान के नायक स्वाधीनता सेनानी थे। वे इस बात पर बल देते थे कि ग्रामीणों को अपना काम खुद संभालना चाहिए और सरकार की मदद की राह नहीं देखनी चाहिए। इस अभियान में आचार्य विनोबा भावे, लोकनायक जयप्रकाश नारायण और अन्य तमाम नायक भी जुटे। सत्ता पक्ष और विपक्ष सभी जुटे।

आजादी के बाद भारत सरकार की महत्वाकांक्षी सामुदायिक विकास योजना 2 अक्तूबर 1952 को आरंभ हुई। तीस करोड़ ग्रामीण आबादी के सामाजिक आर्थिक विकास और मानवीय एवं प्राकृतिक साधनों को संगठित करना इसका लक्ष्य था। वर्ष 1958 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे दुनिया की सबसे क्रांतिकारी और व्यापक योजना माना था, जिसने ग्रामीण भारत का नक्शा बदलने में भूमिका निभाई। समुदायिक विकास की योजनाओं ने आरंभिक दौर में बहुत तेज प्रगति की। वर्ष 1957 तक इसके दायरे में खेती-बाड़ी, संचार साधन, शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण उद्योग, आवास, प्रशिक्षण, सहकारिता और पंचायत शामिल हुए। लेकिन, योजना का मुख्य दारोमदार ग्रामीणों पर ही था। जनभागीदारी की इस योजना में 60 फीसदी योगदान ग्रामीणों का था। कालांतर में इसमें एनसीसी और छात्रों को भी शामिल किया गया। वर्ष 1952 से 1957 के बीच इस योजना के चलते ग्रामीण इलाकों में 8814 मील पक्की और 56,000 मील कच्ची सड़कें बनीं। 51,000 मील सड़कों की मरम्मत हुई।

21,000 नए स्कूल तथा 63,000 प्रौढ़ शिक्षा केंद्र खुले। 72,000 नए कुएं खोदे गए और एक लाख से अधिक कुओं की मरम्मत की गई। उस दौरान सफलता की तमाम कहानियां सामने आईं। पौड़ी गढवाल में श्रमदान से ग्रामीणों ने 74 मील लंबी सड़क बना दी। सीतापुर जिले के बेहटा गांव में 19 मील लंबी सड़क बनी। ग्रामीण नायक जनता को यह बताने में लगे थे कि जो काम वे श्रमदान से कर रहे हैं, उसके लिए सरकारी खजाने से अपार धन लगेगा, जो ग्रामीणों को ही कर के रूप में देना होगा। इसीलिए, सड़कें, तालाब, बांध, कुआं, स्कूल, अखाड़ों और व्यायामशालाओं को ग्रामीणों ने अपने श्रम से खड़ा कर दिया। श्रमदान एक आंदोलन बन गया और खुद संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे सराहा और माना कि इसमें रूढ़िवादी ग्रामवासी भी शामिल हो रहे हैं और सरकारी अधिकारियों के नजरिए में भी बदलाव आया है। उसी दौरान बिहार की कोसी परियोजना में तीन हजार लोगों ने श्रमदान किया। 

जब बदली सोच
समय के साथ आए बदलावों के चलते समाज और सरकार दोनों की सोच बदली। इसके कारण ग्रामीण भारत का वह जज्बा आज नहीं दिखता। सामूहिकता या सहकारी भाव भी प्रभावित हुआ है। सफलता की गाथाएं कम मात्रा में सही, लेकिन देखने को मिलती हैं और समाज इनके नायकों को सराहता भी है। सामुदायिक भागीदारी और श्रमदान के काम देश के हर हिस्से में दिखाई देते हैं। पर, मुख्यधारा के मीडिया की इसमें खास दिलचस्पी नहीं लगती। 

बदलाव के पीछे प्रेरक 
किसी भी बदलाव की कथा को देखें तो उसके पीछे कोई न कोई प्रेरक होता है। पर बदलाव सामूहिकता का भाव करता है। हाल में, मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले के मेदलियापानी गांव में ग्रामीणों ने सामूहिक प्रयास से 5 तालाब बनाकर तीन हजार की आबादी के जल संकट का समाधान कर दिया। प्रति घर महज एक-एक रुपये का सहयोग और श्रमदान से जलस्तर बढ़ गया। अब इलाके के 10 कुओं में बराबर पानी बना रहता है। कोरोना काल में जन सहयोग की कई अच्छी कहानियां ग्रामीण भारत में दिखीं। राजस्थान में सीकर जिले के गांव पसलाना में ग्रामीणों ने सरकारी उच्चतर माध्यमिक स्कूल में ठहरे कई राज्यों के प्रवासी मजदूरों की देखरेख ऐसे दिल खोलकर की कि उन मजदूरों ने अपने श्रम से एक बड़े स्कूल का कायापलट कर दिया। श्रम के बदले धन की पेशकश भी ठुकरा दी। इसी तरह, गुमला में डुमरटांड गांव के लोगों ने श्रमदान से बांध बनाकर सिंचाई की समस्या का समाधान कर लिया। अप्रैल, 2019 में जोधपुर के दयाकौर गांव में भूरालाल पालीवाल के 18 साल के बेटे गणपतराय की मौत हो गई तो परिवार टूट गया। उनकी 10 बीघे की गेहूं और जीरे की पकी फसल को 100 से अधिक ग्रामीणों ने मिलकर काटा और सुरक्षित रख दिया।

आजकल शहरी रहन-सहन और वहां की संस्कृति गांवों पर अपना असर थोपने का प्रयास कर ही है। शादी संस्कारों से लेकर फैशन और आम जनजीवन में यह असर दिखता है। इसलिए, इन सारे बदलावों के बीच गांवों के मूल स्वरूप को बरकरार रखने के लिए सहकारी भाव को नए सिरे से जगाने की जरूरत है।
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के गांव हिवरे बाजार की ग्राम संसद।
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के गांव हिवरे बाजार की ग्राम संसद। - फोटो : गांव जंक्शन
गांव वापस आने लोग
महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के 2 गांवों रालेगण सिद्धि और हिवरे बाजार ने बहुत ख्याति प्राप्त की। हापुड़ के गांव रसूलपुर में कर्मवीर प्रधान से लेकर उत्तराखंड में मिश्रित जंगल खड़ा करने वाले जगत सिंह जंगली जैसे नायक इसी भाव से उभरे। पोपटराव पवार ने हिवरे बाजार को श्रमदान और जन सहयोग से आत्मनिर्भर बनाया। 1992 में ही हर घर में शौचालय बन गए। पलायन रुका और दशकों पहले बाहर गए लोग गांव वापस आने लगे। पेयजल की समस्या का सौ फीसदी समाधान ग्रामीणों ने मिलकर निकाल लिया। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के मेंढा (लेखा) गांव के देवजी तोफा ने आदिवासी महिलाओं को मुख्यधारा में लाकर गांव की सरकार का कायाकल्प किया। पंचायत ने नियम बनाया कि गांव का अनाज बाजार में नहीं बेचेंगे, न शराब पीएंगे और न बेचेंगे। जिसके पास अनाज नहीं होगा, उसे पंचायत सहायता देगी, जिसे वह बिना ब्याज के वापस कर देगा। गांवों में फैली गरीबी पर इसके चलते भारी चोट लगी।