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Mother’s Day: कृषि और खाद्य सुरक्षा के साथ मातृत्व के खूबसूरत रिश्ते को कितना समझते हैं आप?

उमाशंकर मिश्र, नई दिल्ली Published by: Umashankar Mishra Updated Sun, 12 May 2024 12:31 PM IST
सार

एक दशक पहले, खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने अनुमान लगाया था कि महिलाओं की समान भागीदारी से खाद्य उत्पादन में 30 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है, जिससे दुनियाभर में भूखे लोगों की संख्या 10-15 करोड़ तक कम हो सकती है। हालांकि, चौंकाने वाले इन आंकड़ों को जमीन पर नहीं उतारा जा सका है और महिलाएं अभी भी बड़े पैमाने पर कृषि क्षेत्र में हाशिए पर बनी हुई हैं।

खेती-बाड़ी और मातृशक्ति का रिश्ता बेहद गहरा है, जिससे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिली है।
खेती-बाड़ी और मातृशक्ति का रिश्ता बेहद गहरा है, जिससे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में मदद मिली है। - फोटो : सांकेतिक तस्वीर

विस्तार
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भारतीय कृषि का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा छोटे और सीमांत किसानों का है, जिनमें खाद्य उत्पादन के लगभग सभी पहलुओं में महिलाएं हाशिए पर हैं। जलवायु परिवर्तन और बार-बार होने वाली चरम मौसमी घटनाओं ने न केवल खाद्य और पोषण सुरक्षा के खतरे को बढ़ा दिया है, बल्कि महिलाओं तथा बच्चों पर बोझ और असुरक्षा भी बढ़ा दी है। 

महिलाएं, विशेष रूप से ग्लोबल साउथ में, कृषि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बुवाई से लेकर निराई-गुड़ाई और कटाई से लेकर भंडारण तक अधिकांश कृषि कार्य महिलाएं ही करती हैं। लेकिन, जब कोई किसान के बारे में सोचता है, तो सबसे प्रमुख छवि जो दिमाग में आती है, वह पगड़ी या टोपी पहने खेतों के बीच खड़े किसी पुरुष की होती है।

जंगली पौधों की पहचान कर उन्हें खेती में शामिल करने से लेकर बीजों के संरक्षण और कृषि ज्ञान को भावी पीढ़ियों में प्रसारित करने तक, महिलाओं की भूमिका को शायद ही कभी स्वीकार किया गया है। वर्षों के प्रयोग के माध्यम से संश्लेषित पारंपरिक ज्ञान की संरक्षक होने के नाते महिलाओं ने यह सुनिश्चित किया है कि विरासत के बीज पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते रहें और समृद्ध कृषि विविधता संरक्षित रहे।

ऐसी स्वदेशी लचीली खाद्य प्रणालियों के अस्तित्व के कारण ही श्री अन्न जैसे सुपरफूड आज भी मौजूद हैं और वैश्विक भूख तथा कुपोषण की समस्या को हल करने में उम्मीद की किरण बनकर उभरे हैं। मध्य प्रदेश की जनजातीय महिला लहरीबाई द्वारा श्री अन्न बैंक में बीजों दर्जनों किस्मों का संरक्षण और तेलंगाना के ज़हीराबाद ब्लॉक की दलित महिलाओं द्वारा पारंपरिक बीजों की धरोहर को संजोकर रखने की पहल महिलाओं की भूमिका को उजागर करती है। 

अगर हमें महिलाओं को कृषि में लाभकारी रोजगार दिलाना है तो किसान के रूप में उनकी पहचान स्थापित करनी होगी। इसके लिए, सामाजिक परिवर्तनों के लिए व्यावहारिक अंतर्दृष्टि अपनानी होगी, ताकि लैंगिक अंतर को कम किया जा सके। इसका प्रारंभिक बिंदु कृषि विभाग के कर्मियों, विशेषकर अग्रिम पंक्ति के विस्तार कर्मचारियों का प्रशिक्षण हो सकता है, जिससे महिलाओं के प्रति उनके पूर्वाग्रहों को बदला जा सके। 

दृष्टिकोण बदलने के अलावा, ऐसा तंत्र स्थापित करना जरूरी है, जो महिलाओं की बाजार, ऋण और संसाधन नियंत्रण तक पहुंच में सुधार करे। इनमें से, भूमि अधिकार सबसे महत्वपूर्ण चिंता के रूप में उभर कर सामने आया है। भूमि तक महिलाओं की पहुंच और नियंत्रण न्यूनतम है। पिछली कृषि जनगणना ने आंकड़ों के साथ इस अंतर को उजागर किया था कि महिलाओं के पास कुल कृषि भूमि का केवल 14 प्रतिशत भूमि स्वामित्व था।

भूमि जोत का छोटा आकार और निम्न गुणवत्ता असमानता को और बढ़ा देती है। जबकि, महिलाओं के लिए विकास संकेतक, जैसे शिक्षा, रोजगार, आदि में पिछले कुछ वर्षों में लगातार सुधार हुआ है, महिलाओं के भूमि स्वामित्व पर कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है।

संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) खाद्य सुरक्षा, बेहतर पोषण और गरीबी समाप्त करने के लिए न्यायसंगत और सुरक्षित भूमि अधिकारों की गंभीरता को रेखांकित करते हैं। इसलिए, महिलाओं को संसाधनों पर अधिक नियंत्रण और इनपुट और अन्य सहायता प्रणालियों तक पहुंच प्राप्त करनी चाहिए।

भारत सरकार और कुछ राज्य सरकारों ने कुछ सुधार शुरू किए हैं, जैसे हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन और वन अधिकार अधिनियम बस्तियों में भूमि में संयुक्त स्वामित्व प्रदान करने जैसी पहल। लेकिन, अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। 

महिलाएं खाद्य प्रणालियों की आधारशिला रही हैं, क्योंकि वे उत्पादन चक्र में कई भूमिकाएं निभाती हैं। टिकाऊ खाद्य प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करने वाली नीतियों और कार्यक्रमों की प्रणाली को आगे बढ़ाने में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करने की आवश्यकता है।

कृषि में महिलाओं के स्थान को महज एक 'श्रमिक' से किसान - एक संरक्षक और दुनिया के भोजन प्रदाता के रूप में परिवर्तित करने के लिए संरचनात्मक बाधाओं को दूर करने वाली ठोस एवं बहुआयामी पहलों की आवश्यकता है।