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Maharashtra: प्याज की पॉलिटिक्स या मौसम की मार; नाराज क्यों हैं महाराष्ट्र के कांदा उत्पादक किसान?

शिल्पा दातार जोशी, नासिक Published by: Umashankar Mishra Updated Fri, 05 Jul 2024 04:40 PM IST
सार

मौसम का खेती और किसानों पर सीधा असर पड़ता है। हालांकि, महाराष्ट्र में पिछले वर्ष मौसम से जुड़े सारे पूर्वानुमान धरे रह गए और किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। सोयाबीन, कपास, तुअर, मकई, ज्वार, गन्ना और अंगूर जैसी फसलों पर इसका बड़ा असर पड़ा। मौसम और सरकारी नीतियों का सबसे ज्यादा असर प्याज उत्पादकों एवं कारोबारियों पर पड़ा है।

महाराष्ट्र के लासलगांव में स्थित प्याज की मंडी।
महाराष्ट्र के लासलगांव में स्थित प्याज की मंडी। - फोटो : गांव जंक्शन

विस्तार
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मौसम के अनुमान और किसान का गहरा नाता होता है। अगर किसान महाराष्ट्र जैसे खेती एवं बागवानी वाले राज्य के हों, तो यह नाता और भी गहन हो जाता है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) हर साल अप्रैल और मई में बारिश का अनुमान जारी करता है। अगर अनुमान अच्छे बारिश को लेकर होते हैं, तो स्वाभाविक रूप मे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक प्रकार की ऊर्जा की लहर दौड़ती है। लेकिन, कभी-कभी यह अनुमान गलत होने की संभावना भी रहती है। सरकारी और निजी एजेंसियों के पूर्वानुमानों में पिछले साल 2023 के खरीफ सीजन में 95 फीसदी बारिश होने की संभावना व्यक्त की गई थी। महाराष्ट्र की बात करें, तो वर्ष 2023 का मौसम का पूर्वानुमान किसानों की उम्मीदों के अनुसार नहीं था, जिसका परिणाम खरीफ में धान, प्याज, सोयाबीन, ज्वार, मकई जैसे कृषि उत्पादों की उपज पर देखा जा सकता है।
 
प्याज को लेकर बार-बार नीतियों में बदलाव से किसानों की आय और कारोबार पर पड़ा असर।
प्याज को लेकर बार-बार नीतियों में बदलाव से किसानों की आय और कारोबार पर पड़ा असर। - फोटो : शिल्पा दातार जोशी
प्याज किसानों पर सबसे ज्यादा असर  
नासिक जिले में, जहां डिंडोरी और नासिक दो लोकसभा चुनाव क्षेत्र आते हैं, कृषि विभाग के हवाले से यहां सिर्फ औसत के 70 फीसदी बारिश हुई, जिसका असर यहां के मुख्य कैश क्रॉप प्याज और अंगूर पर पड़ा। अगस्त में जब फसल को पोषण मिलने का समय होता है, तो 21 दिनों तक बारिश ने नासिक और महाराष्ट्र के कई जिलों से मुंह फेर लिया, जिसका सीधा असर उपज और किसानों की आमदनी पर पड़ा। प्याज, सोयाबीन, कपास, तुअर, मकई, ज्वार, गन्ना और अंगूर जैसी फसलों पर इसका बड़ा असर पड़ा। इनमें से सबसे बुरा असर प्याज और सोयाबीन की फसलों पर पड़ा। इन दोनों फसलों की उपज में बड़े पैमाने पर गिरावट देखी गई।

उत्तरी महाराष्ट्र में नासिक, धुलिया, जलगांव, नंदुरबार, अहमदनगर जिलों में और पड़ोस के पुणे, सोलापुर, बुलढाणा में प्याज की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। देश में हर साल औसतन 300 मीट्रिक टन प्याज की उपज होती है, जिसमें लगभग 110 से 120 मीट्रिक टन हिस्सेदारी महाराष्ट्र, खासतौर पर नासिक की होती है। नासिक में हर साल खरीफ, लेट खरीफ और रबी को मिलाकर लगभग पांच लाख हेक्टेयर क्षेत्र में प्याज की खेती होती है। जैसा कि सभी जानते हैं कि देश की 60 फीसदी प्याज महाराष्ट्र और 40 फीसदी प्याज अकेले नासिक से आती है। आम चुनाव में नासिक की दोनों लोकसभा सीट एनडीए को गवांनी पड़ी हैं। पड़ोसी चुनाव क्षेत्र धुलिया, नंदुरबार, अहमदनगर, शिरूर, सोलापूर, बारामती, माढा, शिरडी और धाराशिव लोकसभा क्षेत्रों में प्याज की समस्या का प्रभाव पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप 11 सीटें एनडीए को गंवानी पड़ी। 
 
मौसम की मार और नीतियों में बदलाव से बढ़ा किसानों और कारोबारियों का संकट।
मौसम की मार और नीतियों में बदलाव से बढ़ा किसानों और कारोबारियों का संकट। - फोटो : शिल्पा दातार जोशी
जलवायु परिवर्तन से भी पड़ी मार
जलवायु परिवर्तन का खेत-खलिहानों पर बुरा प्रभाव पड़ता दिखाई दे रहा है। मानसून की बारिश, जो कि महाराष्ट्र में 7 से 10 जून तक पहुंचती है, अब जुलाई में दस्तक देने लगी है। इससे किसानों को परेशानी झेलनी पड़ती है। जलवायु परिवर्तन के कारण वातावरण में गर्मी बढ़ रही है। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले महाराष्ट्र में भी क्लाइमेट चेंज का असर पड़ रहा था। मराठवाड़ा और विदर्भ में बारिश कम होने से सोयाबीन, कपास की उपज कम हो गई| मराठवाडा के कई जिलो में बारिश कम होने के कारण जनवरी से ही पानी की किल्लत होने लगी।

महाराष्ट्र के बांधों में सबसे कम पानी का प्रतिशत मराठवाड़ा का था, जो अप्रैल में 10 फीसदी तक गिर गया। बारिश का न होना या बेमौसम बारिश होना, दोनों ही स्थितियां किसानों के जीवन पर बुरा असर डालती हैं। खेती की उपज कम होने से किसानों की आमदनी घटती है। इतना ही नहीं, दिहाड़ी मजदूरी के अवसरों में भी कमी आती है। यह स्थिति लोगों में एक प्रकार का आक्रोश पैदा करती है। मराठवाड़ा में यही जनआक्रोश मराठा आरक्षण आंदोलन में तब्दील हो गया, जिससे लोकसभा में मराठवाड़ा, जो कि भाजपा का गढ़ माना जाता रहा है, वहां भी पार्टी की बुरी तरह हार हो गई। बीड में पंकजा मुंडे की सीट, जो कि भाजपा के लिए प्रतिष्ठा वाली सीट थी, उस पर भी हार हुई। जालना में केंद्र सरकार के रेल राज्य मंत्री रहे रावसाहेब दानवे पाटिल को भी मराठा आंदोलन, किसानो के गुस्से के कारण हारना पड़ा। विदर्भ में भी सोयाबीन, संतरा के किसानों ने सत्ताधारी पक्ष के खिलाफ वोट डाला और पूरे महाराष्ट्र में भाजपा महज 9 सीटों तक सीमित रह गई।
 
प्याज
प्याज - फोटो : गांव जंक्शन
प्याज पर सरकारी नीति
इस साल असमय बारिश और फसलों की उपज में कमी के कारण किसान पहले ही परेशानी झेल रहे थे। फिर भी, 2023 के खरीफ और रबी सीजन में जो कुछ उपज हाथ में आई, उसके अच्छे दाम मिलने की प्रतीक्षा किसानों को थी। पर, सरकार ने अपनी एक्सपोर्ट नीतियों में बार-बार बदलाव लाकर किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। इसका सबसे ज्यादा असर प्याज के किसानों पर पड़ा। अगस्त, 2023 में किसानों की प्याज की उपज को मंडी में 4-5 हजार प्रति क्विंटल भाव मिल रहा था। अचानक केंद्र सरकार ने प्याज पर 40 फीसदी निर्यात शुल्क लगा दिया, जिससे प्याज के दाम तुरंत दो से ढाई हजार तक गिर गए। फिर, नवंबर 2023 में न्यूनतम निर्यात मूल्य (MEP) 800 डॉलर प्रति टन कर दिया गया। इससे भी प्याज के दाम गिर गए। यही नहीं, 7 दिसंबर, 2023 को प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। 31 मार्च 2024 तक यह प्रतिबंध जारी रहा, जिससे प्याज की कीमते गिरती चली गईं। इससे प्याज किसानों और कारोबारियों का घाटा बढ़ता चला गया। इस स्थिति के कारण स्वाभाविक रूप से किसानों में सरकार के खिलाफ विरोध की लहर पैदा हो गई।

दूध को दामों में गिरावट
एक तरफ जहां प्याज की कीमतों को लेकर नाराजगी थी, तो दूसरी तरफ दूध की कीमतों मे भी गिरावट आ गई। रिटेल में 70 रुपये प्रति लीटर की दर से बिकने वाले दूध के लिए महाराष्ट्र के किसानों को सिर्फ 22 से 24 रुपये प्रति लीटर दाम मिल रहे थे। इसका गुस्सा भी किसानों मे उमड़ रहा था। सोयाबीन की कीमतें एमएसपी से नीचे रहना, कपास को भी लागत से कम दाम मिलना, इथेनॉल निर्माण पर पाबंदी की वजह से चीनी उत्पादन बढ़ने से कीमतों में गिरावट और उसका सीधा असर गन्ना किसानों को शुगर मिलों से मिलने वाले गन्ने के भुगतान पर पड़ना और चावल के एक्सपोर्ट को बैन करने जैसी सरकारी नीतियों का किसानों के जीवन पर सीधा असर पड़ा। इससे किसानों में सरकार के लिए नाराजगी बढ़ने लगी। इसी का फायदा विपक्षी दलों ने चुनावों के समय प्रचार और रैलियों मे उठाया और कामयाब रहे।