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मोदी 3.0: ग्रामीण विकास, कृषि क्षेत्र और किसानों के लिए अहम फैसलों की उम्मीद

डॉ. उमाशंकर मिश्र, नई दिल्ली Published by: Umashankar Mishra Updated Tue, 11 Jun 2024 09:50 PM IST
सार

अठारहवीं लोकसभा के चुनाव समाप्त होने के बाद, अब ग्रामीण भारत की नजरें नई सरकार के एजेंडा और वित्त वर्ष 2024-25 के पूर्ण बजट में पेश होने वाले प्रस्तावों और नीतियों पर टिक गई हैं। जलवायु परिवर्तन के खतरों और किसान वर्ग में उपजे असंतोष के बीच नई सरकार के लिए चुनौतियां कम नहीं होंगी। सरकार का गठन होने के बाद पेश होने वाले बजट में ग्रामीण भारत से जुड़ी कई महत्वपूर्ण घोषणाएं देखने को मिल सकती हैं। 

मोदी 3.0 में ग्रामीण भारत के उत्थान को लेकर बड़े फैसलों की उम्मीद।
मोदी 3.0 में ग्रामीण भारत के उत्थान को लेकर बड़े फैसलों की उम्मीद। - फोटो : गांव जंक्शन

विस्तार
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वर्ष 2024 के आम चुनाव के नतीजे आने से पहले ही कई सर्वेक्षक मौजूदा सरकार के बने रहने की भविष्यवाणी कर रहे थे। यह देखना दिलचस्प था कि नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने भी मंत्रालयों से पहले ही योजनाएं तैयार करने को कह दिया, जिन्हें वो तीसरे कार्यकाल में घोषित करना चाहते थे। मंत्रालय भी अपने तरीके से काम में जुट गए, ताकि उन्हें सही नीतिगत ढांचा तैयार करने में मदद मिल सके, जो वर्ष 2047 तक भारत को विकसित बनाने के दृष्टिकोण के अनुरूप हो। अब, जबकि चुनाव के नतीजे आ चुके हैं, तो सभी की नजरें नई सरकार के फैसलों एवं चुनौतियों के साथ-साथ जुलाई में पेश किए जाने वाले पूर्ण बजट पर लगी हुई हैं। 

खेती के भविष्य के लिए अपनाने होंगे छह आयाम  
कृषि विशेषज्ञ डॉ. नरेंद्र सिंह राठौड़ बताते हैं, हमारे पास 25 से 30 हार्वेस्ट ही बचे हैं। इसका मतलब है कि साल में दो हार्वेस्ट लेते हैं तो अगले 15 साल तक ही हम अपनी मिट्टी में खेती कर पाएंगे। मिट्टी में ऑर्गेनिक कंटेंट 0.8 प्रतिशत से घटकर 0.3 प्रतिशत रह गया है। माइक्रोबियल कंटेट 3 फीसदी से घटकर 0.3 फीसदी रह गया है। हम यूरिया और नाइट्रोजन का अंधाधुंध उपयोग कर रहे हैं, पर कार्बन की तरफ ध्यान नहीं दे रहे। हमें बैलेंस एवं कस्टमाइज फर्टिलाइजेशन, वाटर सॉल्युएबल फर्टिलाइजेशन और नैनो फर्टिलाइजेशन को अपनाना होगा। मिट्टी को सुधारने के लिए काम करना पड़ेगा।

दूसरा आयाम पानी है, जिसकी उपलब्धता कम हो रही है। जबकि, हम कृषि में सबसे ज्यादा 80 फीसदी से अधिक पानी उपयोग करते हैं। इस फील्ड में भी काफी काम करना होगा। पहले 5570 क्यूबिक मीटर पानी प्रति हेक्टेयर पर पहले उपलब्ध था और 100 फीट की गहराई पर पानी मिल जाता था। अब 1050 क्यूबिक मीटर पानी प्रति हेक्टेयर में घटकर रह गया है। जल स्तर 400 से 450 फीट नीचे चला गया है।

तीसरा आयाम फर्टिलाइजर और कीटनाशकों का उपयोग है। इनके उपयोग को संतुलित करना होगा। इसके लिए, राशनिंग करनी होगी। वर्ष 1947 में हम प्रति हेक्टेयर में आधा किलो फर्टिलाइजर का उपयोग करते थे, जो बढ़कर 143 किलो प्रति हेक्टेयर हो गया है। ऐसे बीज उपयोग में लाने होंगे, जो रोगों से मुक्त हों, जलवायु के प्रति लचीले हों और कम पानी, कम समय में अधिक उत्पादकता देने में सक्षम हों। हमें अपनी रिसर्च को उसी दिशा में मोड़ना होगा।

चौथा सूत्र मशीनीकरण है। हमारे यहां औसत लैंडहोल्डिंग 0.8 हेक्टेयर है, चीन में लैंडहोल्डिंग 0.4 हेक्टयर है। लेकिन, वो जानते हैं कि उत्पादकता बढ़ाने, उपज की लागत कम करने के लिए मशीनीकरण ही सॉल्यूशन है। हमें अपने यहां भी यही करना होगा।

पांचवा आयाम बदलता क्लाइमेट है। अब 49 डिग्री तक तापमान पहुंच रहा है, ऐसे में जायद की फसल तो खत्म हो जाएगी। बदलते क्लाइमेट के साथ तालमेल स्थापित करने के साथ उसका सामना करने के लिए नए तरीके विकसित करने होंगे। यह मिशन मोड में होना चाहिए।

छठवां आयाम कृषि उत्पादों की मार्केटिंग है। मार्केट इंटेलिजेंस शुरू करना चाहिए। मिशन मोड में एग्रीकल्चर कमोडिटी की ट्रेडिंग शेयर की तरह शुरू करनी चाहिए। फायदा तभी होगा जब उत्पादन स्थलों के पास में ही मार्केट और प्रोसेसिंग की व्यवस्था हो जाए। 
 
अपनानी होगी स्मार्ट तकनीक
अपनानी होगी स्मार्ट तकनीक - फोटो : गांव जंक्शन
सरकार को दुरुस्त करनी होगी खाद्य प्रणाली 
कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी कहते हैं, सरकार को कृषि उत्पादकता बढ़ाने, प्रसंस्करण, खुदरा बिक्री बढ़ाने तथा नई प्रौद्योगिकियों को अपनाने में सुविधा प्रदान करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी कहते हैं, कृषि क्षेत्र को बंपर खाद्यान्न उत्पादन से लेकर फाइबर और जैव ईंधन के लिए कच्चे माल का उत्पादन भी कम संसाधनों में करना है। भारत की जनसंख्या वर्ष 2047 तक लगभग 1.6 अरब हो जाएगी। अधिक आबादी को भोजन उपलब्ध कराना होगा। बढ़ती आय के साथ, लोग अधिक और बेहतर भोजन की मांग करेंगे। इसीलिए, भूमि, जल, श्रम, उर्वरकों और कृषि मशीनरी जैसे इनपुट के उपयोग में दक्षता महत्वपूर्ण होने जा रही है।

ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न चरम मौसमी घटनाओं से उत्पादन प्रणाली के लिए खतरा बढ़ा है। पिछले अप्रैल से मार्च का तापमान पहले ही पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर पहुंच चुका है। पिछले साल अल-नीनो प्रभाव के कारण कृषि-जीडीपी वृद्धि दूसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार, वर्ष 2022-23 के 4.7 प्रतिशत से गिरकर 2023-24 में केवल 0.7 प्रतिशत रह गई। इसके बाद, निर्यात पर प्रतिबंध, व्यापारियों पर स्टॉक सीमा लगाने और खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से सरकारी स्टॉक को लागत से कम पर उतारने जैसे कदम उठाने पड़े।

कृषि को जलवायु के प्रति लचीला बनाने के लिए संसाधनों का निवेश करने में इसका समाधान निहित है। प्रिसिजन फार्मिंग के रूप में ड्रिप, स्प्रिंकलर और संरक्षित खेती को बड़े पैमाने पर अपनाना होगा। वर्ष 2047 तक भारत के दो-तिहाई से अधिक लोग शहरी क्षेत्रों में रह रहे होंगे, जो आज लगभग 36 प्रतिशत है। अच्छी नौकरियों की तलाश में आगे भी स्वाभाविक रूप से लोग गांवों से पलायन करते रहेंगे। इसका निहितार्थ यह है कि खाद्यान्न का अधिकांश हिस्सा दूरदराज इलाकों से शहरी क्षेत्रों में लाया जाएगा। इसके लिए, परिवहन से लेकर भंडारण, प्रसंस्करण और संगठित खुदरा बिक्री तक बड़े पैमाने पर व्यवस्था करनी होगी, जिसमें निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ेगी। नई सरकार को वर्ष 2047 के भारत के लिए, अंग्रेजों से विरासत में मिले कानूनों में उपयुक्त बदलाव करके इस परिवर्तन को सुगम बनाना होगा।

अशोक गुलाटी कहते हैं, फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान को बचाना है तो कुशल मूल्य शृंखलाओं के निर्माण के लिए बाजार से जुड़े नए नियमों की जरूरत होगी। खाद्य प्रणाली में, जब बीज उद्योग से लेकर कृषि मशीनरी, प्रसंस्करण और खुदरा बिक्री तक सभी खिलाड़ी बढ़ रहे हैं, ऐसे में, खेती अभी भी छोटे-छोटे खेतों में बंट रही है। चुनौती यह सुनिश्चित करने की है कि इन छोटे किसानों को किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) या सहकारी समितियों के माध्यम से एक साथ लाया जाए, ताकि प्रसंस्करणकर्ताओं, संगठित खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों की मांग के अनुसार एक मापंदड बनाया जा सके।

उपभोग के मोर्चे पर, हमें साधारण खाद्य सुरक्षा से आगे बढ़कर पोषण सुरक्षा की ओर बढ़ना होगा। हमारे कुपोषण के आंकड़े, खास तौर पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों के मामले में, भयावह हैं। आज 35 प्रतिशत बच्चे बौने हैं, तो वे विकसित भारत के लिए कुशल श्रमशक्ति कैसे बनेंगे? इसे बेहतर बनाने के लिए, स्वच्छता, महिलाओं की शिक्षा और टीकाकरण के अलावा, हमें अपने मुख्य खाद्य पदार्थों को सूक्ष्म पोषक तत्वों से भी समृद्ध करना होगा। अशोक गुलाटी कहते हैं, जब तक किसानों की आय में सुधार नहीं होता, तब तक कुछ खास नहीं होगा। इसके लिए, चाहे वह उर्वरक हो या खाद्यान्न, हमें अपनी सब्सिडी व्यवस्था को नए सिरे से व्यवस्थित करने की आवश्यकता है। 
पिछली गलतियों को सुधारने की जरूरत।
पिछली गलतियों को सुधारने की जरूरत। - फोटो : गांव जंक्शन
पिछली गलतियों से सबक लेने का समय
कृषि विशेषज्ञ विजय जावंधिया कहते हैं, वर्ष 2014 में, जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए तो उनका कहना था कि हम डॉ. मनमोहन सिंह की 'मर जवान, मर किसान' की नीति को 'जय जवान, जय किसान' में रूपांतरित करेंगे। उन्होंने कहा कि हम स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर खेती में पूरे खर्चे का हिसाब लगाकर और उस पर 50 फीसदी मुनाफा जोड़कर किसानों को उनकी फसलों के दाम देंगे। इस पृष्ठभूमि पर हम कृषि मूल्य आयोग के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि डॉ. मनमोहन सिंह ने 2004 से 2014 के दौरान जितनी एमएसपी बढ़ाई, उतनी एमएसपी पिछले 10 साल में नहीं बढ़ाई गई।

सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कहा था कि उत्पादन लागत पर 50 प्रतिशत लाभ देना संभव नहीं है। वर्ष 2019 के आम चुनाव से पहले भाजपा तीन राज्यों में चुनाव हार गई थी, जिनमें छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश शामिल थे। इसके बाद, उन्हें समझ में आ गया था कि किसानों का जो असंतोष है, वो व्यक्त होने लगा है। मंदसौर में तो सोयाबीन, प्याज और लहसुन के दामों में गिरावट की स्थिति में गोलियां तक चली किसानों पर। भावांतर योजना मध्य प्रदेश सरकार को शुरू करनी पड़ी थी। इस असंतोष को शांत करने के लिए, केंद्र सरकार पीएम-किसान सम्मान निधि योजना लेकर आई, जिसके तहत किसानों को 6 हजार रुपये सालाना दिए जाते हैं। बाद में, सर्जिकल स्ट्राइक की घटना से पीएम नरेंद्र मोदी एक सुपर हीरो बनकर उभरे और चुनाव एकतरफा हो गया। फिर, कोरोना महामारी का प्रकोप आया, उस दौरान करीब 11 लाख करोड़ का पैकेज दिया गया, जिसमें से 1.40 लाख करोड़ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रदान किए गए। उसमें भी मनरेगा की मजदूरी 182 से सिर्फ 20 रुपये बढ़ाकर 202 रुपये की गई थी। 

जावंधिया कहते हैं, वर्ष 2016 में 7वां वेतन आयोग लागू किया गया। छठवें वेतन आयोग में जो वेतन सात हजार रुपये था, वह बढ़कर 18 हजार रुपये हो गया। इस तुलना में, कांग्रेस ने मजदूरी नहीं बढ़ाई थी, तो कांग्रेस की गलती को पीएम मोदी ने क्यों नहीं दुरुस्त किया? यह सवाल पूछा जाना चाहिए। हाल में, जो मजदूरी बढ़ाई गई है, वो बहुत कम है। यह बात सभी श्रम रिपोर्ट स्वीकार कर रही हैं कि सातवें वेतन आयोग में महंगाई भत्ते जोड़कर जो वेतन वृद्धि की गई है, उसकी तुलना में मजदूरी नहीं बढ़ी है। इसीलिए, गांवों से पलायन बढ़ा है। अगर गांव और शहर का अंतर कम करना है, तो इन गलतियों को दुरुस्त करना होगा। 
अपने खेतों में काम करते हुए किसान
अपने खेतों में काम करते हुए किसान - फोटो : गांव जंक्शन
प्रकृति के साथ तालमेल जरूरी, जैविक खेती के लिए बने कार्यक्रम 
पद्मश्री से सम्मानित जैविक खेती की मुहिम छेड़ने वाले प्रगतिशील किसान, शिक्षक एवं जैविक कृषि प्रशिक्षक भारत भूषण त्यागी बताते हैं, मिट्टी की कमजोर सेहत, पर्यावरण, पानी, स्वास्थ्य और कृषि अर्थव्यवस्था तक खेती में विभिन्न प्रकार के असंतुलन हो रहे हैं। इन मुद्दों को पिछली सरकार के दौरान समन्वित रूप में देखा गया और इनके लिए आवाज उठती रही। छोटी-छोटी राहत देने से अधिक बड़े फलक पर सोचा गया। खेती को व्यवसाय के रूप में प्रोत्साहित करके किसानों की आमदनी बढ़ाने के प्रयास को बड़े डायवर्जन के रूप में देखा जा सकता है। आज आवश्यकता है कि हम प्रकृति की व्यवस्था को समझकर उसके साथ जीना सीखें। आज जिस तरह से वैश्विक तापमान बढ़ा है, उससे खेती की स्थिरता को बनाए रखना हर राष्ट्र के लिए चुनौती बन गई है। यह राजनीतिक मुद्दा नहीं है। लीनियर इकोनॉमी को सर्कुलर इकोनॉमी में बदलने, पर्यावरण के मुद्दों और किसानों की आमदनी बढ़ाने जैसे मुद्दों पर प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर आगे बढ़ने की जो योजना पिछली सरकार के कार्यकाल में बनी है; आशा करते हैं कि नई सरकार इन कदमों को न केवल आगे बढ़ाएगी, बल्कि इसकी गति को भी तेज करेगी।

खेती में केवल उत्पादक न रहें, बल्कि उद्यमिता के साथ उसे स्वीकार करेंगे, तो यह बड़ा कदम होगा। छोटी-छोटी आर्थिक मदद या अनुदान एक तात्कालिक राहत हो सकती है, पर यह स्थाई समाधान नहीं है। गुणवत्तापूर्ण उत्पादन, फसलों के अच्छे दाम नहीं मिलना, खेती का उत्तम कार्य निकृष्ट होना और इनपुट लागत अधिक होने जैसे मुद्दों को संबोधित करने की आवश्यकता है। नई सरकार को आत्मनिर्भरता और असंतुलन को दूर करने के क्रम में आगे बढ़ना चाहिए। जब हमने हरित क्रांति को अपनाया तब हमारे सामने खाद्यान्न की कमी थी। लेकिन, कृषि को जो कानून और व्यवस्था प्रदान की गई, वह बाजार केंद्रित थी। इसीलिए, कृषि इनपुट पर निर्भरता से लेकर उत्पादन की बिक्री, प्रोसेसिंग और कीमत निर्धारण का अधिकार बाजार के पास चला गया। उत्पादन से उपभोक्ता के बीच बाजार का एकतरफा खेल चलता रहा। इसी को लीनियर इकोनॉमी बोलते हैं। इस व्यवस्था में उपभोक्ता और किसान दोनों का पैसा बाजार के पास जाता रहा।

अगर किसान, बाजार और उपभोक्ता के बीच में साझेदारी से युक्त कार्यक्रम को आकार दिया जाता है, जिसमें किसी की मनमानी न चल पाए, तो ऐसी स्थिति में इकोनॉमी का स्वरूप सर्कुलर हो जाता है। इसमें बाजार का विरोध नहीं है, बल्कि समस्या उस मनमानी से है, जो कीमत निर्धारण से लेकर भंडारण और उपभोक्ता को बेचे जाने वाले उत्पादों तक दिखाई देती है। उसी को लेकर एमएसपी से लेकर कीमत निर्धारण तक एक अंतर बना रहा, जिसे दूर करने के लिए पूर्ववर्ती सरकार प्रतिबद्ध दिख रही थी। पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान कानूनों में बदलाव और एफपीओ को प्रोत्साहन इसीलिए दिया जाता रहा, ताकि उत्पादन का प्रबंधन, प्रमाणीकरण, प्रसंस्करण और बाजार बिक्री में एक समन्वित रूप कृषि को दिया जाए, ताकि कोई वर्ग मनमानी न कर पाए।

केंद्र सरकार को एक अलग कार्यक्रम बनाने की आवश्यकता है, जिसकी मूल अवधारणा यही होनी चाहिए कि प्रकृति की व्यवस्था व उत्पादन प्रबंधन को समझकर किसान खेती करें। खेती का यह प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व पर आधारित तरीका होगा। यदि इसे समझे बिना हम इसमें सिर्फ गाय, गोबर, मंत्र, नक्षत्रों की चर्चा करते रहेंगे तो इसमें बड़े जोखिम हैं। अधिकतर किसान लागत प्रबंधन करते रहे हैं। जबकि, हमें उत्पादन प्रबंधन करना है। इस अंतर को हमंे अवश्य समझना होगा। हमें यह समझना होगा कि एलोपैथी के  डॉक्टर से आयुर्वेद की जानकारी नहीं मिल सकती और आयुर्वेद के विशेषज्ञ को एलोपैथी का ज्ञान नहीं होता। दोनों पद्धतियां ही अलग हैं। प्रकृति के साथ जीना जैविक खेती है और बाजार की लागत के आधार पर कृषि उत्पादन बढ़ाना रासायनिक खेती है। दोनों को एक एजेंडा में नहीं चलाया जा सकता। जिनके मन में यह मिथक है कि जैविक खेती के आधार पर उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता, वो कभी भी मेरे यहां आकर इसका नमूना देख सकते हैं। 

भारत भूषण त्यागी कहते हैं, जैविक खेती दुनिया में एक सुनियोजित कार्यक्रम है। देश में भी इसके मानक बन चुके हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसके मानकीकरण को बहुत अच्छे तरीके से समझा गया है। इस तरह, एक बड़ा काम तो हो गया है। अब यह देखना होगा कि उसका कंटेंट क्या होगा और प्रशिक्षण कैसे दिया जाएगा। वास्तव में, जैविक खेती का प्रशिक्षण देने के लिए जो रिसोर्स पर्सन चाहिए, देश में उसका बड़ा अभाव है। सरकार बजट और कार्यक्रम तो लागू कर देती है, लेकिन प्रशिक्षण के मामले में चूक हो जाती है। बेहतर होगा कि किसानों को ही दूसरे किसानों को ट्रेनिंग देने के लिए रिसोर्स पर्सन के रूप में तैयार किया जाए। इसमें सरकार पर दबाव कम होगा और वैज्ञानिकों को भी शोध करने का अवसर मिलेगा। अनुसंधान, नीति और शिक्षा के रूप में देखें तो जैविक खेती एक समन्वित कार्यक्रम है। हमें खेती के तरीकों में नहीं फंसना चाहिए, तरीके तो जगह और ऋतुकॉल के अनुसार बदल जाते हैं।