कंवल सिंह चौहान 15 साल की उम्र से ही खेती में लग गए। तब पारंपरिक फसलों जैसे धान-गेहूं की खेती ही होती थी। पारंपरिक फसलों से मुनाफा कम होने की वजह से 90 के दशक में ऐसा समय आया जब वह कर्ज में डूब गए। वर्ष 1998 में एक बीज कंपनी के मालिक से मुलाकात हुई। उन्होंने बेबी कॉर्न की खेती के बारे में बताया। कंवल सिंह उस समय बेबी कॉर्न के बारे में अधिक नहीं जानते थे। उस कंपनी ने बताया कि अभी देश में थाईलैंड से 400 रुपये किलो के हिसाब से बेबी कॉर्न आयात किया जाता है। यदि इसकी खेती यहां की जाए तो अच्छा मुनाफा होगा।
पहले से कर्ज में डूबे कंवल सिंह ने हिम्मत कर थोड़ी-सी जमीन पर इसकी खेती की तो वह पहली फसल आने पर ही समझ गए कि इसमें काफी मुनाफा है। धीरे-धीरे चार एकड़ और अब तो 20 से 25 एकड़ में इसकी खेती करने लगे हैं। अपनी इसी खेती की वजह से न सिर्फ उन्हें पदमश्री सम्मान मिला, बल्कि आज उन्हें फादर ऑफ बेबी कॉर्न के नाम से पहचान भी मिल गई है।
कंवल सिंह बताते हैं, धीरे-धीरे आसपास के किसान, फिर पूरा गांव, पूरा जिला और अब आसपास के जिलों में भी किसान इसकी खेती करने लगे हैं। हालांकि, शुरू में कई चुनौतियां भी आईं। जब इसकी खेती बढ़ाई और आसपास भी इसकी फसल होने लगी तो बाजार में इसे बेचने में कुछ समस्या आने लगी। बड़े होटल और बाजार में ले जाने पर भी पूरी फसल नहीं बिक पाती थी। दूसरा, उत्पादन अधिक होने पर फसल का दाम भी कम मिलने लगा। तब इसे दूसरों की प्रोसेसिंग इंडस्ट्री पर लेकर गए। लेकिन, अक्सर दूसरों की इंडस्ट्री में कहा जाता कि अभी दूसरे उत्पाद पर काम चल रहा है। ऐसे में, खुद की प्रोसेसिंग इंडस्ट्री लगाने का फैसला लिया।
फरवरी, 2009 में गांव में ही प्रोसेसिंग यूनिट लगा दी। लेकिन, इसका फायदा तब मिल सकता था, जब यहां अधिक काम हो। इसके लिए, बाकी किसानों को साथ जोड़ा। उन्हें न्यूनतम गारंटी मूल्य देना शुरू किया। उनकी उत्पादन लागत से कुछ अधिक करके यह मूल्य तय करते थे। किसानों को यह गारंटी मिल गई कि इस फसल में नुकसान नहीं होगा। इसके अलावा, प्रोसेसिंग यूनिट में मशरूम, टमाटर और स्वीट कॉर्न भी प्रोसेस करने लगे। इस तरह से काम बढ़ता गया। जब बेबी कॉर्न का बाजार में सही मूल्य नहीं मिलता तो इसे प्रोसेस करके डिब्बे में पैक कर देते हैं। इस तरह यह तीन साल तक सुरक्षित रहता है। बाद में, इसे बड़ी कंपनियों या विदेश तक बेचा जाता है।
कंवल सिंह इस खेती का मुनाफा समझाते हैं। वह कहते हैं, इसकी साल में तीन से चार फसल मिल जाती हैं। कितना भी दाम कम हो जाए, लेकिन एक फसल ऐसी जरूर मिल जाती है, जो धान-गेहूं से अधिक मुनाफा दे। इसके अलावा, बेबी कॉर्न के साथ में सहफसली करते हैं। इसके साथ ही सरसों, मेथी, पालक, धनिया की भी फसल लेते हैं, जिससे आमदनी अधिक हो जाती है। इसके साथ ही, बेबीकॉर्न की फसल में जो पत्ते निकलते हैं, उससे पशुओं के लिए अच्छा हरा चारा मिल जाता है।
उनकी अपनी गोशाला भी है तो यहां का चारा गायों के लिए काम आ जाता है। इस चारे को खाने से पशु दूध भी अधिक देते हैं। अब तो दूसरे जिलों से भी डेयरी फार्म संचालक इसके पत्ते खरीदने हमारे यहां आते हैं। एक एकड़ से 20 हजार रुपये तक आमदनी इसके चारे से हो जाती है। इस तरह, बेबी कॉर्न की खेती से प्रति एकड़ करीब सवा लाख रुपये एक बार में मिल जाते हैं। साल भर में चार-पांच लाख रुपये एक एकड़ से आमदनी होती है। अब तो सोनीपत के हजारों किसान इसकी खेती कर रहे हैं।
कंवल सिंह बताते हैं, पहले बेबी कॉर्न आयात होता था, जबकि अब प्रतिदिन एक से डेढ़ टन फ्रेश बेबी कॉर्न का निर्यात इंग्लैंड में हो रहा है। इसके अलावा, थाईलैंड से जो बेबी कॉर्न 400 रुपये किलो आता था, अब यहीं पर 70 रुपये किलो के औसत दाम पर बिक रहा है। इसका बाजार इतना बढ़ गया है कि गांव में ही आढ़ती बैठने लगे हैं, बीज बिकने लगा है। बेबीकॉर्न की यहां एक पूरी मार्केट बन गई है।
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