Home Misal Bemisal Vishesh Maharashtra Conflict With Humans Increases Tigers Are Being Held Captive

Maharashtra: इंसानों से बढ़ते टकराव की बाघों को मिली सजा, ग्रामवासियों के दबाव में बाघ बन रहे बंदी

शिरीष खरे, ठाणे Published by: Umashankar Mishra Updated Thu, 20 Jun 2024 10:46 AM IST
सार

मानव-वन्यजीव संघर्ष की बढ़ती घटनाओं के बावजूद कभी उनकी जांच नहीं होती। विदर्भ में इंसानों के साथ बाघों के टकराव की घटनाओं के मामले में भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है, जहां बिना यह जाने कि बाघ वास्तव में दोषी था या नहीं, उसे ग्रामवासियों के दबाव के चलते तुरंत कैद करने का आदेश जारी कर दिया जाता है। बाघों के लिए मशहूर विदर्भ के जंगलों के कई बाघ अब पिंजरों में कैद हो गए हैं।

बाघ और इंसानों के बढ़ते टकराव की सजा अंततः बाघों की ही भुगतनी पड़ रही है।
बाघ और इंसानों के बढ़ते टकराव की सजा अंततः बाघों की ही भुगतनी पड़ रही है। - फोटो : गांव जंक्शन

विस्तार
वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें

महाराष्ट्र के विदर्भ अंचल में इंसान और वन्यजीवों का संघर्ष चरम पर पहुंच गया है। खासतौर पर, विदर्भ के चंद्रपुर इलाके में बीते कुछ वर्षो के दौरान बाघों के साथ स्थानीय निवासियों के संघर्ष के मामले बड़ी संख्या में दर्ज किए गए हैं। अगर बाघ किसी इंसान पर हमला करता है या किसी पालतू पशु का शिकार करता है तो प्रशासन की ओर से उसे तुरंत कैद करने का आदेश दिया जाता है। इसके बाद, जो स्थिति बनती है, उसमें बाघ का अपने प्राकृतिक आवास में दोबारा लौट पाना लगभग नामुमकिन हो जाता है।

क्या सचमुच दोषी हैं बाघ  
आमतौर पर, मानव-वन्यजीव संघर्ष की किसी भी घटना की विस्तृत जांच नहीं होती। यह भी सत्यापित नहीं किया जाता है कि बाघ वास्तव में दोषी था या नहीं। ग्रामीण जैसे ही मांग करते हैं या गांव के राजनीतिक नेता ग्रामीणों की आड़ में दबाव बनाते हैं, तुरंत बाघ को कैद करने का आदेश जारी कर दिया जाता है। इसके चलते बाघों के लिए मशहूर विदर्भ के जंगलों के कई बाघ पिंजरों में बंद हो गए हैं। बाघ को कैद करने के बाद उसे पिंजरे में रखा जाता है। हालांकि, उसे इंसानों से दूर नहीं रखा जाता।

इन प्रकरणों के लिए बाघ बचाव समिति तो बनाई गई है, लेकिन देखने में आया है कि बाघों के बचाव के लिए बनी समिति के सामने मामले जल्दी नहीं आते। नतीजा यह होता है कि बंदी बाघ को उसके प्राकृतिक आवास में छोड़ने की संभावना लगभग खत्म हो जाती है।

महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में बाघों की संख्या सबसे अधिक है और मानव-वन्यजीव संघर्ष भी इसी जिले में अधिक है। बाघ परियोजना के अलावा आसपास के क्षेत्र में बाघों की संख्या अधिक होने से यहां संघर्ष अधिक गहरा होता दिख रहा है। चंद्रपुर के बाद गढ़चिरौली जिले में भी इंसान और बाघों के बीच संघर्ष बढ़ रहा है। इसलिए, चंद्रपुर के बाद इसी जिले में बाघों के कैद किए जाने के अधिक मामले सामने आए हैं।

पिंजरों में बढ़ रही बाघों की संख्या
पिछले पांच वर्षों में ब्रह्मपुरी वन क्षेत्र से दस बाघ, चंद्रपुर वन क्षेत्र से चार बाघ, ताडोबा-अंधारी बाघ परियोजना से दो बाघ, अलापल्ली से एक बाघ, वडसा वन क्षेत्र से पांच बाघ, यवतमाल जिले के पंढरकवाड़ा से दो बाघ पकड़े गए हैं। इसके अलावा, गोंदिया और भंडारा से एक-एक बाघ को पकड़ा गया है। वहीं, अलग-अलग इलाकों से छह से सात तेंदुए भी जेल में बंद किए गए हैं।

बंदी बाघों को उनके प्राकृतिक आवास में छोड़ा जाए या चिड़ियाघरों में भेजा जाए, यह तय करने के लिए अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई है। बाघ को कैद करने के बाद कारण और दस्तावेज तत्काल समिति के समक्ष रखे जाने की उम्मीद की जाती है। यदि यह साबित हो जाता है कि घटना में बाघ की कोई गलती नहीं है, तो समिति उसे तुरंत उसके प्राकृतिक आवास में छोड़ने की सिफारिश करती है। यदि घटना के लिए कोई बाघ जिम्मेदार है तो समिति उसे चिड़ियाघर को सौंपने की सिफारिश करती है। हालांकि, महीनों तक मामले समिति के सामने नहीं आते हैं। इस बीच बाघ पिंजरे में ही रहते हैं और इन्हें इंसानों की संगति में रखा जाता है। इस तरह, लम्बे समय तक समिति ऐसे बाघ को उसके प्राकृतिक आवास में छोड़ने की अनुशंसा नहीं कर सकती।

मध्य प्रदेश ने टकराव से गुजरने वाले बाघों को मुक्त करने के लिए कुछ स्थल निर्धारित किए हैं। इसलिए, अगर किसी बाघ को वहां कैद किया जाता है तो उसे तुरंत उसके प्राकृतिक आवास में छोड़ दिया जाता है। इसके उलट महाराष्ट्र में ऐसी कोई जगह तय नहीं की गई है। यदि कैद किए गए बाघ को उसी क्षेत्र में वन विभाग के अधिकार के तहत पिंजरे में रखा जाए तो उसकी रिहाई की उम्मीद रहती है। लेकिन, देखा गया है कि एक बार जब बाघ पकड़ लिया जाता है तो उसे तुरंत पिंजरे में बंद कर दिया जाता है और बचाव केंद्र में भेज दिया जाता है। इस तरह, बाघ के आजाद होने की संभावना कम हो जाती है।

राज्य में कैद बाघों की हालत बेहद खराब है। इन बाघों को वस्तुतः नागपुर शहर के गोरेवाडा बचाव केंद्र में रखा जाता है, जहां उन्हें तेंदुए के पिंजरे में रखा जाता है और तेंदुओं को बंदर के पिंजरे में ले जाया जाता है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इन बाघों को तत्काल राज्य के भीतर या फिर बाहर के चिड़ियाघरों में भेजा जाना चाहिए। ऐसा होता है तो कम से कम बाघ वहां खुलकर सांस ले सकेंगे। लेकिन, इस संबंध में भी नहीं सोचा जा रहा है। लिहाजा, किसी तरह के निर्णय न लेने की स्थिति में बाघों का जीवन जंगलों से दूर छोटे-छोटे पिंजरों में कैद हो गया है।

चरम पर बाघों का इंसानों के साथ संघर्ष
महाराष्ट्र के चंद्रपुर, गढ़चिरौली और भंडारा जिले में 'सीटी-1' बाघ ने पिछले दो सालों में एक दर्जन से ज्यादा लोगों की जान ली है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक, देशभर में हर साल बाघों के हमले में करीब 50 लोगों की मौत हो जाती है। इनमें से आधे तो महाराष्ट्र के विदर्भ अंचल के चंद्रपुर और गढ़चिरौली जिले से होते हैं। पिछले कुछ समय से महाराष्ट्र के इस बाघ बहुल अंचल में इंसानों पर बाघों के घातक हमले की घटनाएं बढ़ी हैं। सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है?

वन्यजीव विशेषज्ञों के अनुसार, इंसानों पर हमला करना बाघ की प्रवृत्ति नहीं होती है, बल्कि कई मामलों में इसके पीछे असुरक्षा का कारण जिम्मेदार होता है। इंसान और बाघ दोनों अपने अस्तित्व को बचाए रखने की कोशिशों में बार-बार आमने-सामने आ रहे हैं। गौर करने वाली बात है कि पिछले एक दशक में भारत की कुल जनसंख्या वृद्धि का 57 प्रतिशत वन क्षेत्रों में रहा है। इसलिए, इस 'जनसांख्यिकीय परिवर्तन' के प्रभावों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। वनों पर मनुष्यों की आबादी और निर्भरता दोनों बढ़ने का प्रमुख कारण विकासात्मक गतिविधियों का दबाव है। जब वनों पर मनुष्यों की आबादी और निर्भरता का दबाव बढ़ेगा, तो वनों में रहने वाले बाघ और अन्य जानवरों के हमलों की घटनाएं भी बढ़ेंगी। बाघ के आवास में इस अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप के कारण वह जंगल से बाहर निकलने के लिए मजबूर हो रहे हैं। इनमें से 99 फीसदी घटनाएं इसी जंगल में हुई हैं।

आजीविका पर संकट 
ऐसी स्थिति में, इस तरह के आदिवासी अंचलों में लोगों की आजीविका बदल जाती है। आदिवासियों का जंगल के पास खेती करना कई पीढ़ियों व्यवसाय रहा है। इस क्षेत्र में बरसात अच्छी होती है तो मानसून में धान और सर्दियों में दलहन उगाने का क्रम रहा है। अब जब बाघ निकल रहे हैं तो कई लोगों ने जंगल के पास खेती करना छोड़ दिया है। हर कोई कहता है कि मानसून के दौरान बाघ कम सक्रिय होते हैं, इसलिए धान की कटाई की जा सकती है, मगर सर्दियों के दौरान खेतों को खाली छोड़ना पड़ता है।

यही नहीं, बाघ दिखाई देने पर आठ से दस दिनों के लिए स्कूल बंद कर दिए जाते हैं। चंद्रपुर जिले में ब्रह्मपुरी के पास शिवनी क्षेत्र के लोगों का कहना है कि ऐसा साल में पांच से छह बार होता है। बाघ ही नहीं, तेंदुआ भी आदिवासियों पर कई तरह की पाबंदियां लगा चुका है। तेंदुए का पसंदीदा शिकार होता है कुत्ता। अब डर के मारे गांव में कुत्ते पालने बंद हो रहे हैं। कारण यह है कि कुत्ता पालने पर तेंदुआ उसका शिकार करने के लिए गांव में घुस सकता है।

इसी तरह, घरेलू पशुओं का शिकार करना बाघों और तेंदुओं का पसंदीदा शगल है। अगर वे गाय और बैल को मारते हैं तो सरकार आदिवासियों को मुआवजा देती है। लेकिन, ऐसी घटना हुई तो किसान की खेती का चक्र पूरी तरह से ठप हो जाता है। जब जोड़ी में से एक बैल को मार दिया जाता है और दूसरे बैल को खरीदना पड़ता है। कई बार नया जोड़ा पहले की तरह काम नहीं करता है। एक बैल को दूसरे के अनुकूल होने में छह महीने से एक साल तक का समय लग जाता है।

बाघों का बढ़ा पलायन
चंद्रपुर जिले के ब्रह्मपुरी वन क्षेत्र से बाघ लगभग 2,000 किमी की यात्रा करके महाराष्ट्र से ओडिशा राज्य में पहुंच रह हैं। इससे पहले यवतमाल जिले के टिपेश्वर अभयारण्य से 'वॉकर' के नाम से मशहूर बाघ ने 3,020 किलोमीटर की यात्रा की थी। महाराष्ट्र में कई बाघ बाहर चले गए हैं। लेकिन, अभी तक इस संबंध में कार्रवाई नहीं की गई है।

इसी तरह, राज्य के भीतर भी बाघ एक जगह से दूसरी जगह के लिए पलायन कर रहे हैं। वर्ष 2014 में 'कानी' नाम की एक बाघिन 69.2 किलोमीटर की दूरी तय करके न्यू नागझीरा अभयारण्य से नवेगांव अभयारण्य तक चली गई। 

वहीं, फरवरी 2013 में, न्यू नागझिरा से 'आयत' के नाम से मशहूर एक बाघ 60 किलोमीटर की दूरी पार करके मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के वारासिवनी जंगल में पहुंच गया था। इसी तरह, साल 2010-11 में 'प्रिंस' 120 किलोमीटर की दूरी तय करके मध्यप्रदेश के पेंच बाघ परियोजना में चला गया था।

दरअसल, महाराष्ट्र में बाघों की संख्या में वृद्धि के कारण युवा नर बाघ या बाघिन अपने निवास स्थान की ओर पलायन कर रहे हैं। इसके अलावा भी बाघों के पलायन के कई कारण हैं। आमतौर पर पलायन तब होता है जब एक बाघ के मूल निवास स्थान में दूसरा बाघ प्रवेश कर जाता है और प्रभावी हो जाता है। इसी तरह, अक्सर युवा और अलग हुए बाघ नए आवास की तलाश में पलायन करते हैं। जैसे मानव जीवन में प्रजनन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, वैसे ही जानवरों में भी है। इसलिए, बाघ अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए साथी की तलाश में प्रवास करते हैं। बाघों के पलायन के पीछे शिकार भी एक कारण है। एक ही क्षेत्र में एक से अधिक बाघ होने पर भी बाघ पलायन करना पसंद करता है।

कब होता है संघर्ष
मानव-वन्यजीव संघर्ष मुख्यत: तब होता है जब बाघ के शावक, जो हाल ही में अपनी मां से अलग हो गए हैं, अपने स्थायी निवास स्थान और साथी या साथी की तलाश में पलायन करते हैं। अक्सर यह देखा गया है कि यदि कोई बाघ गांव के बाहरी इलाके में देखा जाता है तो अति-उत्साह के कारण उसकी तस्वीरें लेने की होड़ लग जाती है और ऐसे समय में आवारा बाघ उस पर हमला कर सकता है। जब बाघ का शावक 'सी1' हिंगोली में अपने आवास की तलाश में भटक रहा था, तब सुकड़ी गांव के लोगों ने जिज्ञासावश उसकी तस्वीरें लेने की कोशिश की और बाघ के जवाबी हमले में वह घायल हो गया। इसके अलावा, बाघ अक्सर पलायन के दौरान राष्ट्रीय राजमार्गों, नदियों और रेलवे की पटरियों को पार करते हैं। ऐसे समय में उनकी आकस्मिक मृत्यु की भी आशंका रहती है। पलायन के दौरान बाघों को शिकारियों से भी खतरा रहता है।

वहीं, बाघों के पलायन से कुछ लाभ भी होते हैं। बाघों के पलायन की प्रक्रिया से अनेक नए गलियारे और जंगलों की निकटता उजागर हुई है। इसलिए, बाघों की सुरक्षा के साथ-साथ उनके परिसंचरण तंत्र की सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। ऐसे में, उस संपर्क मार्ग की सुरक्षा बनाए रखना राज्यों के वन-विभागों का काम है, जिसे वे ठीक से नहीं कर पा रहे हैं।