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Maharashtra: मेलघाट के कोरकू आदिवासियों के बीच अलख जगा रही यह युवा जोड़ी, पलायन को रोकने के लिए छेड़ी मुहिम

संदीप नाईक, अमरावती Published by: Umashankar Mishra Updated Sat, 22 Jun 2024 09:03 PM IST
सार

कॉरपोरेट जिंदगी और मोटी सैलेरी जब नई पीढ़ी के युवाओं का शगल बन चुका है, तो महाराष्ट्र के एक युवा जोड़े ने अंधेरे को चुना है। पति और पत्नी दोनों मिलकर जनजातीय इलाके मेलघाट में गरीबी, कुपोषण, पलायन और बेरोजगारी के खिलाफ अलख जगाने में जुटे हैं। 

कोरकू आदिवासियों को स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि और पशुपालन जैसे विषयों पर जागरूक किया जा रहा है।
कोरकू आदिवासियों को स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि और पशुपालन जैसे विषयों पर जागरूक किया जा रहा है। - फोटो : संदीप नाईक

विस्तार
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महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के संग्रामपुर तालुका से स्नातक तक पढ़ाई करने के बाद, देश के शीर्ष संस्थान टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई से  जलनीति और प्रबंधन में मास्टर डिग्री प्राप्त करने वाले महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के मनोज कुयटे ने आम युवाओं की तरह कॉरपोरेट जगत में मोटी सैलेरी का लालच छोड़कर महाराष्ट्र के कोरकू आदिवासियों के बीच अपनी जिंदगी बिताने का फैसला किया है। इस सफर में उनकी पत्नी कोमल भी कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं।

आदिवासियों के पलायन को रोकने की कोशिश 
महाराष्ट्र के अमरावती जिले के धारिणी ब्लॉक में करीब 150 गांव हैं और दो लाख की आबादी यहां रहती है। यह इलाका मेलघाट के नाम से देशभर में कुपोषण, पिछड़ेपन, पलायन और घने जंगलों के लिए जाना जाता है। मनोज और कोमल दोनों अमरावती जिले के मेलघाट में कोरकू आदिवासियों के बीच रहकर पानी प्रबंधन, कृषि, पशुपालन, महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य एवं पोषण और सामुदायिक वन अधिकार को मजबूत करने में जुटे हैं। उनकी कोशिश एक ही है कि यहां से स्थानीय आदिवसियों के पलायन को रोका जा सके और उन्हें आजीविका के अवसर उपलब्ध कराए जा सकें। धीरे-धीरे कोरकू आदिवासी परिवारों से मनोज का मेलजोल बढ़ता गया। वर्ष 2017 में, यहां के 15 गांवों में उन्होंने आदिवासियों के बीच अलख जगाने का काम शुरू किया। धीरे- धीरे मनोज जैसे अन्य युवा भी जुटते गए।

टाटा सामजिक संस्थान से मास्टर डिग्री प्राप्त करने के बाद मनोज समाज प्रगति संस्थान, भीकनगांव, खरगोन, म.प्र. में काम करने आ गए। यहां उन्होंने आर्थिक पिछड़ापन, पलायन और आजीविका से जुड़ी समस्याएं देखी, आदिवासी परिवारों में बदहाली देखी, तो उन्होंने आदिवासियों के बीच रहकर उनके जीवन स्तर में सुधार लाने का फैसला कर लिया। मनोज ने सोचा कि अगर उनके काम से दस परिवारों के जीवन में भी बदलाव आता है, तो यह एक सार्थक बदलाव होगा। एक वर्ष काम करने के बाद उनकी लगन और प्रतिबद्धता को देखते हुए संस्था ने उन्हें महाराष्ट्र के अमरावती जिले के मेलघाट क्षेत्र के धारिणी ब्लॉक में भेज दिया।
मनोज और उनकी पत्नी कोमल।
मनोज और उनकी पत्नी कोमल। - फोटो : संदीप नाईक
समस्याओं से घिरा रहा है मेलघाट
स्वामी दुराके, जो महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश की सीमा पर बसे गढ़चिरौली के रहने वाले हैं, कहते हैं, जब हमने करीब ढाई लाख की आबादी वाले इस ब्लॉक में काम शुरू किया तो पाया कि इस इलाके में समस्याओं का अम्बार है। आजीविका, खेती, पलायन, कुपोषण और महिलाओं से संबंधित समस्याएं सबसे अधिक देखने को मिलीं। शुरुआत में 15 गांवों में काम करना शुरू किया और स्थानीय कोरकू जनजातीय समुदाय को विश्वास में लिया। स्थानीय युवाओं को जोड़ा, खेती एवं रोजगार के क्षेत्र में काम शुरू किया और महिलाओं के बचत गट बनाकर महिला सशक्तिकरण का काम आरंभ किया। आज हमारा काम लगभग 50 गांवों में फैल चुका है और साठ हजार कोरकू आदिवासियों तक हम पहुंचकर उनके जीवन में बदलाव लाने का प्रयास कर रहे हैं। इन प्रयासों में पानी प्रबंधन, कृषि, पशुपालन, स्वयं सहायता समूहों का गठन, स्वास्थ्य एवं पोषण और सामुदायिक वन अधिकार को बढ़ावा दिया जाता है, ताकि आदिवसियों के पलायन को रोका जा सके और उन्हें आजीविका के अवसर उपलब्ध कराए जा सकें।

प्लास्टिक के विरुद्ध लड़ने का संकल्प
मनोज कुयटे ने पिछले वर्ष शादी की और उनकी पत्नी कोमल कुयटे भी महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के संग्रामपुर तालुका की रहने वाली हैं। कोमल ने पैथोलॉजी में कोर्स किया है और वे यहां के प्रसिद्ध डॉक्टर आशीष सातव के महात्मा गांधी अस्पताल में काम करती हैं। अपने विचारों और कामों में दोनों बहुत सिद्धांतवादी और दृढ़ हैं। उन्होंने तय किया है कि जिंदगी कुछ बुनियादी सिद्धांतों के साथ ही बिताएंगे। दोनों को प्लास्टिक से भयानक चिढ़ है। एक वर्ष विवाह के समय इस दम्पति ने तय कर लिया था कि जीवनभर प्लास्टिक के विरुद्ध लड़ते रहेंगे। मनोज और कोमल इस मायने में भी आदर्शवादी हैं कि उन्होंने शादी में बहुत खर्च नहीं किया और मनोज ने दहेज भी नहीं लिया। कोमल की मां और पिता ने जो राशि अन्य बेटियों को दी थी, वही कोमल को भी देना चाह रहे थे, पर मनोज ने स्वीकार नहीं किया और ससुर से कहा कि उन्हें एक रुपया भी नही चाहिए।
मेलघाट में महिलाओं को जागरूक करते हुए मनोज।
मेलघाट में महिलाओं को जागरूक करते हुए मनोज। - फोटो : संदीप नाईक
पर्यावरण से प्यार 
मनोज और कोमल व्यवहारिक होने के साथ पर्यावरण प्रेमी भी हैं। वो बाहर का कुछ खाते-पीते नहीं हैं। अपने पास स्टील की बोतल हमेशा रखते हैं, जब जरूरत होती है तो किसी घर, सार्वजनिक नल या हैंडपम्प से पानी लेकर पीते हैं, पर प्लास्टिक की बोतल का पानी पीना उन्हें स्वीकार नहीं है। प्लास्टिक मुक्त समाज का सपना देखते हुए इन्होंने घर पर ही अलग-अलग आकार की कपड़े की थैलियां सिलकर रखी हैं, जब भी वो कहीं जाते हैं, तो अपने झोले में ये थैलियां साथ रखते हैं। किराने वाले से भी कागज में सामान लेते हैं; दाल, चावल या मसालों के लिए अपनी थैलियां आगे कर देते हैं - न कोई पैकेज्ड मसाला, न टिन पैक्ड सामान। मनोज बताते हैं, किराने की दुकान वालों को हमसे बहुत दिक्कत होती है, क्योंकि हमें सामान देने में समय लगता है और उन्हें पुड़िया बांधना भी नही आता। कोमल बताती हैं, अक्सर हम दोनों को देखकर दुकानदार सामान देने से मना कर देते हैं और हमें कई जगह भटकने के बाद सामान मिलता है। 

मनोज बताते हैं, मैं खुद दुकान में घुसकर सामान तौलता हूं और कागज की पुड़िया बांधकर अपना सामान रखता हूं, यह इसलिए कि आजकल हर जगह पैक सामान उपलब्ध होता और दुकानदार भी ग्राहक को पैक्ड सामान पकड़ाकर जल्दी मुक्त हो जाना चाहते हैं।" कोमल और मनोज दोनों चिंता जताते हुए कहते हैं, "एक हजार लोगों को समझाओ - तब एकाध व्यक्ति कपड़े की थैली रखना शुरू करता है। यह भी लगातार नही होता, आज जब जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम देखने को मिल रहे हैं तो प्लास्टिक का इस्तेमाल कितना घातक है, यह समझने और समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। रिसाइक्लिंग तो सिर्फ एक भ्रम है, इस प्लास्टिक रूपी दानव को नष्ट करना असंभव है।
 
मनोज अमरावती जिले के आदिवासी बहुल ब्लॉक धारिणी में काम कर रहें है - टिकाऊ विकास को लेकर और कोमल देश के प्रसिद्ध डॉक्टर आशीष सातव के अस्पताल में पैथालॉजी लैब में टेक्नीशियन हैं। यह अस्पताल पूर्णतः नि:शुल्क है और मेलघाट क्षेत्र में जनजातीय समुदाय को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने और आदिवासियों के बीच कुपोषण को दूर करने के अपने प्रयासों के लिए जाना जाता है। कोरकू समुदाय के बीच अलख जगाते ये दोनों युवा साथी निश्चल, सहज और सहयोगी है, आप एक बार मिलेंगे तो इनसे दोस्ती हो जाएगी और इनके काम से प्यार हो जाएगा, मुसीबत में फंसे किसी भी इंसान के लिए इनके द्वार सदा खुले हैं।

स्वामी दुराके और धर्मेन्द्र गहलोत के नेतृत्व में यहां लगभग सत्तर युवा साथियों की टीम कुपोषण से लेकर खेती आदि के काम कर रही है। लोगों के फेडरेशन बनाकर ये कोरकू आदिवसियों के जीवन में बदलाव ला रहें है। आज आवश्यकता है मनोज, स्वामी और धर्मेन्द्र जैसे साथियों की, जो शहरी चकाचौंध छोड़कर दूरस्थ इलाकों में जाकर अलख जगाने का जमीनी काम करें और लोगों के जीवन में बदलाव लाकर दिखाएं।